भारत में यदि देश की जनता राजनीतिक दलों या मुफ्तखोरी देने वाले नेताओं के चक्कर में फँस जाती है तो भारत काम करने वाला देश नहीं, बल्कि एक आज़ाद और निकम्मा देश कहलायेगा जो किसी भी कीमत पर गुलाम बन सकता है।

In India, if the people of the country get trapped in the

भारत में यदि देश की जनता राजनीतिक दलों या मुफ्तखोरी देने वाले नेताओं के चक्कर में फँस जाती है तो भारत काम करने वाला देश नहीं, बल्कि एक आज़ाद और निकम्मा देश कहलायेगा जो किसी भी कीमत पर गुलाम बन सकता है।
भारत में यदि देश की जनता राजनीतिक दलों या मुफ्तखोरी देने वाले नेताओं के चक्कर में फँस जाती है तो भारत काम करने वाला देश नहीं, बल्कि एक आज़ाद और निकम्मा देश कहलायेगा जो किसी भी कीमत पर गुलाम बन सकता है।

NBL, 14/06/2023, Lokeshwer Prasad Verma Raipur CG: In India, if the people of the country get trapped in the affair of political parties or leaders who give freebies, then India will not be called a working country, but a free and useless country which can become a slave at any cost.

आप मेहनत से वह सब कुछ हासिल कर सकते हैं, जो आपके जीवन यापन के लिए आवश्यक है। बाकी रह गई आपकी असीमित इच्छाएं तो मनुष्य की इच्छाओं का कोई अंत नहीं है इसलिए कोई चाहे कितना भी मेहनत कर लें अपनी असीमित इच्छाओं को पूरा करने में सक्षम नहीं है।

आज भारत की राजनीति देश मे इतना गंदा खेल, खेल रहे हैं सत्ता हासिल करने के लिए जिसका खामियाजा आने वाले नया पीढी के लोग भुगतेंगे वह है मुफ्त या सस्ता या महंगाई दर के महंगाई को कम कर देने वाले वादा जो आज देश के कई राज्यों में निभाई जा रही है, और इस खेल को देश के सभी राजनीतिक दल खेल रहा है, जो आने वाले समय काल के लिए देश मे आर्थिक संकट को आमन्त्रित कर रहे हैं, मुफ्त में देने के लिए भी रुपिया लगता है जो आप राजकीय कोष या आम लोगों के उपर आर्थिक अधिभार के बोझ तले दबा कर ये मुफ्त की रेवड़ी जो बाँट रहे हैं, इन सभी से देश उन्नति की ओर अग्रसर नहीं हो सकती बल्कि देश कर्ज में दब जायेगा और देश फिर से गुलाम बन जायेगा क्योकि आप किन्ही दूसरे देशों से कर्ज लेंगे इन मुफ्त में खाने वाले देशवासीयो के लिए क्योकि आपको तो सत्ता चाहिए देश जाए गड्ढे में फिर विदेशी कर्ज देने वाले देश के हर एक बातों को आप स्वीकार करेंगे जो वो कहेगा आपके देश का कोयला चाहिए आपके देश को लोहा चाहिए आपके देश का और अन्य खनिज संपदा चाहिए कहेगा विदेशी देश तो आपको देना होगा अपने देश के कीमती खनिज संपदा को क्योकि आप कर्ज दार है और एक तरह से कर्जदार गुलाम की तरह होता है, सदियों पहले एक रिवाज था जो कर्जदार अपना लिया गया कर्ज नही चुका पाते तो उसका सब कुछ वह कर्ज देने वाले छिन लेता था और कर्जदार मूक बधिर होकर यह सब कुछ चुपचाप देखते रहते थे वैसा ही हम सभी देशवासि देखते रहेंगे इन कर्जदार राजनीतिक नेताओ के देश के कीमती संपत्ति बेचने की इस खेल को, जो आज मै लिख रहा हूँ देश को बचाने के लिए लिख रहा हूँ... 

यह पूरी तरह से सत्य है, बस आप देशवासीयो को सोचना चाहिए कि हमको कैसा देश चाहिए ताकतवर देश चाहिए की कर्ज से दबे गुलाम देश चाहिए जो सदियों के गुलामी से हमारे पूर्वजों ने अपना सुख को त्याग कर अपने आप को बलिदान कर अपने आने वाले नया पीढी के सुख स्वतन्त्रता के लिए बलिदान हो गए और देश को आजादी दिलाई अब फिर से देश के लोगों को मुफ्त की रेवड़ी बाँटकर देश को गुलाम बनाना चाहते हैं देश के राजनीति व देश के नेता लोग ये कैसा राजनीति है जो देश के सभी धर्मों के लोगों को संकट में डालने जा रहे हैं यह सब उचित नहीं है जरा दिल से विचार कीजिये मेरे प्यारे देशवासीयो यह मुफ्त की रेवड़ी जो आज राजनीतिक नेेताओ का खेल चल रहा बहुत ही खतरनाक खेल है जो देश के उज्ज्वल भविष्य को अंधकार की ओर धकेल रहे हैं।

हमारे भारत देश कर्म प्रधान देश है, जो अपने कार्यक्षमता से बड़े बड़े अजूबे कार्य किया और कर रहे हैं अपने बाहुबल से अच्छे किसान बना और बन रहे हैं अच्छे इंजीनियर बन रहा क्या क्या नही बनके दिखा रहे हैं हमारे भारत देश के सभी धर्म वर्ग के लोग सब कुछ संभव कर सकते हैं हमारे भारतीय लोग जो देश दुनिया के लोगों के लिए अजूबे है हमारे भारतीय समाज के लोग, लेकिन कुछ दशकों से भारत को कमजोर किया जा रहा है देश के बहुत से जन आबादी को जैसे बिना मतलब के आंदोलन करना बिना मतलब के एक धर्म के लोगों को दूसरे धर्मो के लोगों के एकता पन को खंडित करना सदियों पहले देश के क्रूर नीति व जाति समाज धर्म के भेदभाव को आज के वर्तमान आधुनिक नया पीढी के सामने लाना व भेदभाव फैलाना व उन पुरानी सभी गलतीयो का समर्थन कर देश के लोगों के सामने प्रस्तुत कर नये समाज के लोगों को भड़काना व अपने ही भारतीय समाज के एक से दूसरे लोगों के उपर दुश्मन जैसे नया विचार पैदा करना... 

और आज देश में सबसे बड़ी समस्या है राजनीतिक दलों के द्वारा देश में मुफ्त की रेवड़ी बाँटना या एक धर्म समाज को दूसरे धर्म समाज से अलग थलग कर राजनीति करना और आसानी से अपने चन्गुल में फँसा कर बहुमत प्रतिशत को बढ़ाना और राज सत्ता हासिल करना ये कूटनीति ना ही उस फसने वाले धर्म समाज के लोगों को फ़ायदा मिलता है ना ही देश का भला होता है, ये सरासर अन्याय है इन धर्म समाज के लोगों के लिए और इस प्रकार के गलत मानसिकता  रखने  वाले राजनीति से बाहर निकलना चाहिए और अपने हक की लड़ाई खुद लड़नी चाहिए। 

चुनावी मौसम नज़दीक है, राजनीतिक दल अपने वादों से मतदाताओं को लुभाने की योजना बना रहे हैं, जिसमें मुफ्त सुविधाएँ देना भी शामिल है।

वर्षों से मुफ्त सुविधा की राजनीति चुनावी लड़ाई का एक अभिन्न हिस्सा बन गई है। पाँच राज्यों- उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, पंजाब और मणिपुर में आगामी विधानसभा चुनावों का परिदृश्य इससे अलग नहीं है।

* भारतीय राजनीति में मुफ्त सुविधाएँ:

राजनीतिक दल लोगों के वोट को सुरक्षित करने के लिये मुफ्त बिजली / पानी की आपूर्त्ति, बेरोज़गारों, दैनिक वेतनभोगी श्रमिकों और महिलाओं को भत्ता, साथ-साथ गैजेट जैसे लैपटॉप, स्मार्टफोन आदि की पेशकश करने का वादा करते हैं। इस प्रथा के पक्ष और विपक्ष में कई तर्क हैं:

ऐसी प्रथा के समर्थकों का तर्क है कि मतदाताओं के लिये यह जानना आवश्यक है कि पार्टी सत्ता में आने पर क्या करेगी और उनके पास इन विकल्पों को तौलने का मौका है।

मुफ्तखोरी का विरोध करने वालों का कहना है कि इससे राज्य के साथ-साथ केंद्र के खजाने पर भारी आर्थिक बोझ पड़ता है (यदि लोकसभा चुनाव होते हैं)।

* मुफ्तखोरी के पक्ष में तर्क:

अपेक्षाओं को पूरा करने के लिये आवश्यक: भारत जैसे देश में जहाँ राज्यों में विकास का एक निश्चित स्तर है (या नहीं है), चुनाव आने पर लोगों को नेताओं/राजनीतिक दलों से ऐसी उम्मीदें होने लगती हैं जो मुफ्त के वादों से पूरी होती हैं।

इसके अलावा जब आस-पास के अन्य राज्यों के लोगों को मुफ्त सुविधाएँ मिलती हैं तो चुनावी राज्यों में भी लोगों की अपेक्षाएँ बढ़ जाती हैं।

कम विकसित राज्यों के लिये मददगार: ऐसे राज्य जो कम विकसित हैं एवं जिनकी जनसंख्या अत्यधिक है, वहाँ इस तरह की सुविधाएँ आवश्यकता या मांग आधारित होती है तथा राज्य के उत्थान के लिये ऐसी सब्सिडी की पेशकश ज़रूरी हो जाती है। 

* मुफ्तखोरी के विरोध में तर्क:

अनियोजित वादे: मुफ्त सुविधाएँ देना हर राजनीतिक दल द्वारा लगाई जाने वाली प्रतिस्पर्द्धी बोली बन गया है, हालाँकि एक बड़ी समस्या यह है कि किसी भी प्रकार की घोषित मुफ्त सुविधा को बजट प्रस्ताव में शामिल नहीं किया जाता है।

ऐसे प्रस्तावों के वित्तपोषण को अक्सर पार्टियों के ज्ञापनों या घोषणापत्रों में शामिल नहीं किया जाता है।

राज्यों पर आर्थिक बोझ: मुफ्त में सुविधाएँ उपहार देने से अंततः सरकारी खजाने पर असर पड़ता है और भारत के अधिकांश राज्यों की मज़बूत वित्तीय स्थिति नहीं है एवं राजस्व के मामले में बहुत सीमित संसाधन हैं।

अनावश्यक व्यय: बिना विधायी बहस के ज़ल्दबाजी में मुफ्त की घोषणा करने से वांछित लाभ नहीं मिलता है एवं यह केवल गैर-ज़िम्मेदाराना व्यय को बढ़ावा देता है।

अगर गरीबों की मदद करनी हो तो बिजली और पानी के बिल माफी जैसी कल्याणकारी योजनाओं को जायज ठहराया जा सकता है।

हालाँकि पार्टियों द्वारा चुनाव-प्रेरित अव्यवहारिक घोषणाएँ राज्यों के बजट से बाहर होती है।

* आगे की राह:

आर्थिक नीतियों की बेहतर पहुँच: यदि राजनीतिक दल प्रभावी आर्थिक नीतियाँ बनाए, जिसमें भ्रष्टाचार या लीकेज़ की संभावना ना हो एवं लाभार्थियों तक सही तरीके से इनकी पहुँच सुनिश्चित की जाए तो इस प्रकार की मुफ्त घोषणाओं की ज़रूरत नहीं रहेगी। 

पार्टियाँ जिन आर्थिक नीतियों या विकास मॉडलों को अपनाने की योजना बना रही हैं उन्हें जनता के सामने स्पष्ट रूप से बताया जाना चाहिये और प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिये।

इसके अलावा पार्टियों को ऐसी नीतियों के आर्थिक प्रभाव और व्यय को लेकर उचित समझ होनी चाहिये।

केंद्र और राज्यों में सत्तारूढ़ दल इस तरह के उपायों का पालन करने एवं उदाहरण स्थापित करने वाली पहली पार्टी होनी चाहिये।

विवेकपूर्ण मांग-आधारित मुफ्त सुविधाएँ: भारत एक बड़ा देश है और अभी भी ऐसे लोगों का एक बड़ा समूह है जो गरीबी रेखा से नीचे हैं। देश की विकास योजना में सभी लोगों को शामिल करना भी ज़रूरी है।

विवेकपूर्ण और समझदार तरीके से मुफ्त या सब्सिडी की पेशकश जिसे राज्यों के बजट में आसानी से समायोजित किया जा सकता है, अधिक नुकसान नहीं करती है एवं इसका लाभ उठाया जा सकता है।

बुनियादी ज़रूरतों में सब्सिडी जैसे- छोटे बच्चों को मुफ्त शिक्षा देना या स्कूलों में मुफ्त भोजन देना सकारात्मक दृष्टिकोण है।

सत्ता में रहते हुए समय का उपयोग: सत्ता में समय का उपयोग करना सही धारणा है। यानी पाँच साल का कार्यकाल जब एक राजनीतिक दल की सरकार सत्ता में होती है तो इस महत्त्वपूर्ण अवधि में मुफ्त के वादे के बजाय उचित प्रावधान करना चाहिये।

समाज की बेहतरी और सुशासन सुनिश्चित करना सरकार एवं अन्य सभी राजनीतिक दलों की ज़िम्मेदारी है, इसलिये लोगों को इस तरह के मुफ्त उपहार देने की एक सीमा होनी ज़रूरी है।

सब्सिडी और मुफ्त में अंतर: आर्थिक अर्थों में मुफ्त के प्रभावों को समझने और इसे करदाताओं के पैसे से जोड़ने की ज़रूरत है।

सब्सिडी और मुफ्त में अंतर करना भी आवश्यक है क्योंकि सब्सिडी उचित और विशेष रूप से लक्षित लाभ हैं जो मांगों से उत्पन्न होते हैं जबकि मुफ्तखोरी काफी अलग है।

यद्यपि लक्षित ज़रूरतमंद लोगों को लाभ देने के लिये हर पार्टी को सब्सिडी पारिस्थितिकी तंत्र बनाने का अधिकार है लेकिन राज्य या केंद्र सरकार के आर्थिक स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक बोझ नहीं पड़ना चाहिये।

जनता के बीच जागरूकता: लोगों को यह महसूस करना चाहिये कि वे अपने वोट मुफ्त में बेचकर क्या गलती करते हैं। यदि वे इन चीज़ों का विरोध नहीं करते हैं तो वे अच्छे नेताओं की अपेक्षा नहीं कर सकते।

यदि मुफ्त में खर्च किये गए धन को रचनात्मक रूप से रोज़गार के अवसर पैदा करने, बाँध और झीलों जैसे बुनियादी ढाँचे के निर्माण तथा कृषि को प्रोत्साहन प्रदान करने के लिये उपयोग किया जाता है तो निश्चित रूप से राज्य का सामाजिक उत्थान और प्रगति होगी।

यह जनता ही है जो सही चुनाव करके राजनीतिक दलों को इस तरह के मुफ्तखोरी से अधिक प्रभावी ढंग से हतोत्साहित कर सकती है।

निष्कर्ष

चुनाव प्रचार के दौरान वादे करते हुए केवल राजनीतिक पहलू पर विचार करना बुद्धिमानी नहीं है, आर्थिक हिस्से को भी ध्यान में रखना ज़रूरी है क्योंकि अंततः बजटीय आवंटन और संसाधन सीमित हैं। मुफ्त की बात करते समय राजनीति के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को भी ध्यान में रखना चाहिये।