आपने अक्सर चुनावी और राजनीतिक सभाओं में 'देश का नेता कैसा हो' जैसे नारे सुने होंगे, जहां नेता के समर्थक उसका नाम जोड़कर नारे को पूरा कर देते हैं, लेकिन हमारा नेता कैसा हो?
You must have often heard slogans like 'Desh ka neta kaisa ho'




NBL, 02/07/2023, Lokeshwer Prasad Verma Raipur CG: You must have often heard slogans like 'Desh ka neta kaisa ho' in election and political meetings, where the supporters of the leader complete the slogan by adding his name, but how should our leader be?
हम भारतीय लोकतंत्र अपनी जनहित नुकसान के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं, जो इन राजनीतिक नेताओं को अपना मुखिया बनाकर उन पर अटूट विश्वास रखते हैं और हम लोग इन नेताओं की उल्टी-सीधी बातों में आकर भ्रमित हो जाते है।
हम भारतीय लोकतंत्र अपने हित के अनुसार अपना नेता चुनते हैं, ताकि हमारा नेता हमारे हित में काम करे, लेकिन नेता जनता के हित को भूलकर अपने पार्टी हित में लग जाते है और इसका मुख्य कारण उनके द्वारा दिये गये लुभावने वादे हैं। जो हम जनता अपना कल्याण समझते है चुनाव के दौरान.और हम जनता उस नेता के चक्कर में फंस जाते हैं. देश के हिंदू अपना हित देखते हैं और मुसलमान भी अपने हित को देखते हैं और अपना नेता बनाते हैं, लेकिन इन नेताओं से किसी भी धर्म और जाति के लोगों को कोई खास फायदा नहीं मिलता, बल्कि हम देश के लोग आपस में ही उलझे रहते हैं। और हम लोकतन्त्र को उलझाने वाले यह राजनीतिक नेता व राजनीतिक सपोर्टर या अपने धर्म गुरु या धार्मिक नेता होते हैं, जो जनहीत के नाम पर वोट बैंक की राजनीति करते हैं, इसमें भारतीय मीडिया व अंतरराष्ट्रीय मीडिया की बहुत बड़ी योगदान होते है।अक्सर चुनावी व राजनीतिक सभाओं में आपने ऐसे नारे सुने होंगे ‘देश का नेता कैसा हो ..’, जहां नेता के समर्थक उनका नाम जोड़कर नारे को पूरा करते हैं। इसी उम्मीद से कि वह नेता अपने समर्थकों और जनता की सेवा के लिए ही कुर्सी संभालेंगे। परंतु क्या ये नेता कुर्सी पर बैठते ही जनता की अपेक्षा पर खरे उतरते हैं? क्या ये नेता अपने परिवार और निजी जीवन की परवाह किए बिना जनसेवा करते हैं? यदि ऐसा नहीं करते तो ऐसे नारे लगाने वालों को वास्तव में सोचना होगा कि ‘देश के नेता कैसे हों?’
राज्यों के चुनाव हों या दिल्ली की नगर निगम के चुनाव हों, सोशल मीडिया पर इन दिनों कई राजनीतिक दलों के नेताओं पर जनता का गुस्सा फूटते देखा गया है। फिर वह चाहे प्रचार कर रहे इलाके के नेता हों, विधायक हों, पार्षद हों या दल के प्रवक्ता हों। इन पर हो रहे जनता के प्रहारों में वृद्धि हो रही है। जनता ही नहीं, राजनीतिक दलों के कार्यकत्र्ता ही अपने नेताओं की पिटाई करते दिखाई दे रहे हैं। एक राज्य में चुनाव प्रचार पर निकले नेता का क्षेत्र की जनता ने जूतों के हार से स्वागत किया। इस स्वागत का कारण मतदाताओं को किए वह झूठे वायदे थे जिन्हें नेता या उसके पदासीन दल ने पूरा नहीं किया। हर चुनाव से पूर्व जनता को वही पुराने वायदों को नए लिबास में पेश कर दिया जाता है। जाहिर-सी बात है जनता के सब्र का बांध टूटेगा ही।
पिछले दिनों दिल्ली नगर निगम के चुनावों के प्रचार के दौरान एक इलाके में टी.वी. डिबेट के बीच ही नेता जी व उनके पुत्र की दूसरे दल के समर्थकों द्वारा पिटाई का वीडियो भी सामने आया। इस पिटाई के पीछे भी जनता को गुमराह करना और उनके दल द्वारा किए गए झूठे वायदे ही था। एक दल के नेता के समर्थकों की दूसरे दल के नेता व समर्थकों के बीच ऐसी लड़ाई नई बात नहीं। परंतु ऐसा करने वाले नेता, चाहे किसी भी दल के हों, क्या नेता कहलाने के लायक हैं?
आजादी के बाद से अब तक हुए चुनावों में देश की जनता ने अपने शासक चुनने में अक्सर कोई गलती नहीं की। चुनावों में जनता का जो सामूहिक फैसला निकलकर आया, उसमें अक्सर श्रेष्ठ उम्मीदवार ही विजेता बने। चुनाव नतीजों के जरिए जनता ने बताया है कि वह अपने शासक में कौन-से गुण देखना चाहती है। यदि कोई नेता जनता की उम्मीदों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता तो उसे अगले चुनाव में घर बिठा दिया जाता है। मतदाताओं ने नेता के गुणों और क्षमताओं पर ही उन्हें चुन कर जिताया, लेकिन सिर्फ तब तक जब तक उनमें उन गुणों और चुनावी वायदों को पूरा करने की क्षमता थी।
राजनीति के महाज्ञानी चाणक्य ने अच्छे शासक के गुणों को परिभाषित किया है। यही वह गुण हैं जो नेता बनने से पहले, अच्छे इंसान और अच्छे नागरिक के रूप में दिखने चाहिएं। आजकल के नेताओं को गांधी, नेहरू, शास्त्री, इंदिरा, वाजपेयी जैसा विनम्र और मृदुभाषी होना चाहिए। इतिहास गवाह है कि भारत की जनता ने बड़बोले और दंभी नेताओं के बजाय विनम्र और मृदुभाषी व्यक्तित्व को अपने नेता के रूप में पसंद किया है। जिन दलों और नेताओं में घमंड की झलक दिखाई दी, जनता ने उन्हें अपने वोट से वंचित करने में देर नहीं की।
देश की जनता नेताओं के व्यक्तित्व में नकारात्मकता को पसंद नहीं करती। वोटरों ने प्राय: ऐसे नेताओं को पसंद कर चुना है जो दूसरों की कमियों पर जोर देने की बजाय अपनी सकारात्मक राजनीति को आगे रखते हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के भाषणों में आपको ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचारों के खिलाफ लंबी तकरीरें नहीं मिलेंगी। बापू जनता के सामने हमेशा बेहतर और सकारात्मक मुद्दे ही रखते थे। आज के माहौल में आप ऐसे नेता उंगलियों पर गिन सकते हैं। किसी भी नेता को चुनने से पहले उसमें यह देखा जाता है कि वह विश्वास योग्य है या नहीं? व्यक्ति का यह वह प्राथमिक गुण है जो अगर न हो तो दूसरे सभी गुण बेकार हैं। नेता का व्यक्तित्व अगर विश्वास करने योग्य न हो, न तो उसकी विनम्रता प्रभावित करेगी और न ही निर्णय लेने की क्षमता।
योग्य नेता में सही समय पर सही निर्णय लेने की क्षमता होनी चाहिए। सही समय पर अहम फैसले लेने से बचने और फैसलों को टालने वाले नेताओं को जनता का समर्थन कभी नहीं मिला। यह गुण नेतृत्व क्षमता का पहला और अनिवार्य गुण माना जाता है। पुरानी पीढ़ी के सफल नेता, चाहे किसी भी दल के हों, अगर सालों तक जनता के प्रिय बने रहे तो इसी गुण के कारण।
चंद्रगुप्त मौर्य के महामंत्री चाणक्य ने राजा के शिक्षित होने पर अच्छा खासा जोर दिया। परंतु उस वक्त शिक्षा के पैमाने आजकल के शिक्षा के स्तर से काफी अलग थे। आजादी के बाद भारतीय नेताओं की औपचारिक शिक्षा पर प्राय: ज्यादा अहमियत नहीं दी गई। जनता ने नेताओं के शिक्षा के स्तर की कभी कोई विशेष मांग नहीं की। कुछ लोग मानते हैं कि सरकार चलाने की समझ किसी प्रकार की शिक्षा या डिग्री का मोहताज नहीं है। इसके बावजूद हमारे देश के कई ऐसे नेता, भले ही आजकल के दौर के हों या पहले के, उनकी शिक्षा का स्तर काफी अच्छा रहा। ऐसे नेता भीड़ में अलग ही दिखाई देते हैं।
सामंती राज्य काल में राजा से यह उम्मीद नहीं होती थी कि वह जनता के बीच दिखाई दे। उस समय यदि राजा को जनता के बीच जाना होता था तो ऐसा वो भेस बदलकर करता था। परंतु लोकतंत्र में ऐसा नहीं है। आजकल के शासकों का जनता के बीच दिखाई देना अनिवार्य है। परंतु कुछ नेताओं ने सुरक्षा के बहाने ख़ुद को जनता से अलग कर लिया है। वह केवल चुनावों के नजदीक ही जनता के पास जाते हैं। अगर जनता उनसे खुश होती है तो जयकारे लगाती है वरना उन्हें जनता के गुस्से का सामना करना पड़ता है।