सारे संसार में 'पंच तत्व और नौ रस' ही जीवन का आधार और मूल मन्त्र है और इन्हीं सनातनी पंचतत्वों और नौ रसों का आधार ब्रह्मांड है, यही सभी धर्मात्माओं का जीवन है।
In the whole world, 'five elements and nine juices' are the basis and basic mantra




NBL, 05/02/2023, Lokeshwer Prasad Verma, Raipur CG: In the whole world, 'five elements and nine juices' are the basis and basic mantra of life and the basis of these Sanatani five elements and nine juices is the universe, this is the life of all religious souls.
दुनिया में ब्रम्हांड एक है, और प्रकृति का स्वरूप अनेक है, कही पर बर्फ है तो कही पर पूरे बंजर रेजिस्तान है, तो कही पर जल ही जल है, और कही परअग्नि ही अग्नि है, और कही पर उपजाऊ भूमि है, और कही पर वनों से आच्छादित पेड़ पौधे से भरा पड़ा जंगल है, तो कही पर बंजर उजाड़ डरावना स्थान है, कही पर नाना प्रकार के जीव जंतु है, और इन सबके उपर आकाश है। आप रात को आकाश की ओर देखो तो चमकते तारे दिखेगा और आपको कभी चाँद का उजला दृश्य दिखेगा तो कभी आपको अंधेरा में चाँद छुपा दिखेगा और दिन में आपको सूरज का रौशनी के उजाले से भरा ताप दिखेगा, जितना भी आप अपना दिमाग दौड़ा लो ब्रम्हांड का ओर छोर को नही ढूंढ पावोगे इतना रहस्य से भरे पड़े है ये जगत ब्रम्हांड। लेकिन हम मानव जीवन के लिए ब्रम्हांड के इन पाँच तत्व और नौ रस ही उपयोगी है, और यही हमारे जीवन का आधार है।
इन्ही जगत ब्रम्हांड में विज्ञान अपने शोध से विषय वस्तु संसाधन का नव निर्माण करते हैं और विज्ञान हमारे मानव जीवन का विकास वस्तु का निर्माण भी करते हैं और हमारे लिए विनाश भी पैदा करते है। लेकिन विज्ञान जीव आत्मा कभी भी पैदा नहीं कर सकते, इसलिए नहीं कर सकते क्योकि ये जगत ब्रम्हांड का स्वयं स्वयभू रचना है। ये जीव आत्मा कहा से आता है और कहा जाता है इसका निवारण विज्ञान अपने आप से कभी भी नहीं ढूंढ पायेगा, इसी का नाम पाँच तत्व और नौ रस का रहस्य है। जिसका मालिक स्वयं ब्रम्हांड है।
आज हम विश्व में जितने भी धर्म के मानने वाले लोग है, और उन धर्मो के इष्ट भी है, हम सनातनी हिंदू राम, श्याम व हमारे धर्म के तैतिस करोड़ देवी देवताओं का वर्णन हमारे धर्म ग्रंथ में हैं, और इन सभी देवी देवताओं के अंदर बाहर एक शक्ति है वह शक्ति है ब्रम्हांड शक्ति जो मार भी सकता है और पैदा भी कर सकता हैं, इसलिए हम उसे ब्रम्ह ईश्वर कहते है, जो निराकार स्वरूप है। जो अपने आप सभी प्रकार के रूप व स्वरूप को धारण कर प्रगट हो सकते है। लेकिन अन्य धर्मो के मानने वाले लोगों के लिए ये सब एक अचमभित कर देने वाला दृश्य है उनके लिए इन देवी देवताओं के अस्त्र शस्त्र व इनके एक अंग में कई अंगों का जुड़ा हुआ देखकर इन देवी देवताओं को काल्पनिक मानते है, यह काल्पनिक नहीं है यह सब एक ब्रम्हांड का स्वरूप है।
जो हम मानव जीव व जगत के जीव जंतु इनके बिना जीवन जी ही नहीं सकते, क्योकि यही पाँच तत्व नौ रस का दाता है सनातन धर्म के देवी देवता। इसलिए हम सनातनी हिंदू धर्म के लोग इनके स्वरूप का पूजा करते हैं और हम इनके स्वरूप को मूर्ति बनाकर स्थापित कर उनको पूजते है, ऐसा करने से हमको यह एहसास होता है कि हमारे आस पास ही ये दिव्य शक्तियाँ मौजूद हैं और इससे हम लोग पाजेटिव एनर्जी फिल करते हैं ब्रम्हांड शक्ति हमारे मालिक देवी देवता हमारे रक्षा के लिए सदा हमारे साथ है। इससे नया ऊर्जा का संचार होता है, नेगेटिव थाट बाहर हो जाते है, और नया पाजेटिव एनर्जी का विस्तार होता हैं। इसलिए सनातनी हिंदू धर्म के लोग दयालु प्रवित्ति के होते हैं, क्योकि सारे जगत के जीव में अपने प्रभु का सत्ता है, ऐसा मानते हैं और हम सब इनके जीव आत्मा इनके अंग है, इसलिए सभी जीव हमारे सनातनी धर्म के है, ऐसा हम मानते हैं, बाकी दुनिया में जितने भी धर्म है वह सब सनातनी धर्म के अंग से अलग होकर नया धर्म का निर्माण किया जो प्रकृति विरुद्ध है, इसलिए इन लोग अपना रूप रंग को अलग मानता मान्यता देकर खुद भटक रहे हैं, जबकि सनातनी पाँच तत्व नौ रस के अंदर ही इनके भी धर्म है, तो ये सब अलग धर्म के मानने वाले लोग सनातनी धर्म से अलग कहा है। क्योकि हम सनातनी ब्रम्हांड के सभी स्वरूपों की पूजा करते हैं।
* ‘पांच तत्व और नौ रस’ जीवन का आधार और मूलमंत्र है...
नौ रसों को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि सृष्टि का निर्माण करते समय किन चीजों का प्रयोग हुआ ताकि बिना किसी रुकावट के जीवन का चक्का चलता रहे और जितना भी समय किसी भी जीव को इस संसार में विचरण करने के लिए मिला, वह व्यतीत होकर जब समय समाप्त होने की घोषणा सुनाई दे तो निर्विकार भाव से इस संसार से अलविदा कह दिया जाए।
* पांच तत्व से बुनी चदरिया .... हमारा यह ब्रह्मांड और शरीर पांच तत्वों अर्थात पृथ्वी, आकाश, जल, वायु और अग्रि पर आधारित माना गया है। इन्हीं से दुनिया चलती है और आत्मा के जरिए विभिन्न प्राणियों या योनियों के रूप में जीव संसार में घूमता फिरता रहता है। मानव देह के अतिरिक्त धरती, आसमान और नदियों तथा समुद्रों में अपनी प्रति और उपयोगिता के अनुसार सभी प्रकार के जीव जंतु, पक्षी आदि सृष्टि के आरंभ से कुदरत के साथ तालमेल बिठाते हुए जिंदगी को जीने लायक बनाते आए हैं। वसुधैव कुटुंबकम् की नींव भी यही है।
यह तो हुई भौतिक या शारीरिक गतिविधियों को संचालित करने की प्रक्रिया लेकिन शरीर में एक और तत्व है जो किसी दूसरे जीव को उपलब्ध नहीं है, वह है हमारा मन या दिमाग जिससे हमारी मानसिक गतिविधियों का संचालन होता है। हम क्या सोचते हैं, क्या और कैसे करते हैं, यह सब पहले हमारे मस्तिष्क में जन्म लेता है और हमारे शरीर के विभिन्न अंग उसी के अनुरूप आचरण करने लगते हैं। सबसे पहले पृथ्वी को ही लें जिसे ठोस माना गया है।
विधाता ने हमारे शरीर की बनावट भी उसी की भांति ठोस या मजबूत रखी ताकि पृथ्वी की तरह वह सभी प्रकार के प्रहार और तनाव सब कुछ झेल सके। इसके बाद जल को जीवन का स्रोत अर्थात जीवनदायी माना गया है और इसीलिए इसे संभाल कर रखने तथा इसका संरक्षण करने पर जोर दिया जाता है। वायु हमारे जागरूक रहने और हमेशा चलते रहने का संकेत है।
हवा अदृश्य होकर भी जीवन में खुशियां और मन में उल्लास भरने का काम करती है। ठंडक और ताजगी का एहसास होता है और सांस के जरिए शरीर को शक्ति मिलती रहती है। अग्रि को ऊर्जा और प्रकाश का स्रोत माना गया है जिसका असर सीधा हमारी बुद्धि पर पड़ता है। हमारे शरीर को जितनी ऊर्जा मिलती रहेगी वह उतना ही क्रियाशील और प्रकाश से भरा रहता है। आकाश तो है ही सब से ऊपर और सभी तत्वों को एक छत्र की तरह छाया प्रदान करता है। जब भी शरीर विचलित होता है और मन में कोई कुंठा होती है तो आकाश को ही अपना दु:ख दर्द सुनाने का मन करता है।
दिन में नीला आसमान और रात में चांद सितारों से भरा यह तत्व हमें सुकून देने के साथ-साथ हालात में बदलाव होने का भरोसा भी देता है। कभी रात का अंधकार और फिर दिन का उजाला यही कहता है कि परिवर्तन ही संसार का प्रमुख नियम है और इससे कोई अछूता नहीं इसलिए बदलाव को स्वीकार करते रहने में ही जीवन का सुख है।
पांच तत्वों से बने शरीर का निर्माण करते समय निर्माता ने आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा के रूप में हमें इंद्रियों का एसा अनमोल खजाना दिया जिससे हम सभी तरह की अनुभूति प्राप्त करते हैं और इनके जरिए स्वाद तथा गंध का अनुभव करते हैं। इसके भी अनेक रूप हैं जैसे कि कड़वा, खट्टा, मीठा, नमकीन, तीखा और कसैला। इनसे ही शास्त्रों में बताए गए नौ रसों का निर्माण होता है। ये रस जीवन में संतुलन बनाए रखने का काम करते हैं। गड़बड़ तब होती है जब अपने मन के वश में आकर इन रसों का बैलेंस बिगड़ जाता है।
* रस बिना जीवन नहीं..... शृंगार को रसराज कहा गया है। यह मनुष्य की कोमल भावनाआें को सहलाने का काम करता है, उसे प्रेम करने के लिए प्रेरित करता है और सौंदर्य को सराहने की योग्यता प्रदान करता है। शृंगार रस जहां सुंदरता का प्रतीक है, वहां यदि इसमें क्रोध का समावेश हो जाए तो यह वीभत्स बन जाता है और हमारे मन में नफरत पैदा करने का काम करता है। जब नफरत बढ़ जाती है तो फिर मनुष्य के अंदर जो भाव पैदा होता है वह रौद्र रूप धारण कर लेता है जिसके वश में हो जाने से अच्छे बुरे का भेद करना कठिन हो जाता है।
रौद्र रस के समानांतर वीर रस को रखा गया है जो इस बात का प्रतीक है कि अगर हमें अपनी शक्ति अर्थात वीरता का प्रदर्शन करना है तो उसे किसी अन्य के साथ हो रहे अन्याय और अत्याचार के खिलाफ दिखाया जाए। यह रस बताता है कि वीर होने का अर्थ यह नहीं कि किसी को अपने अधीन किया जाए बल्कि यह है कि यदि कोई दबा, कुचला, दीन हीन है तो उसकी रक्षा इस प्रकार की जाए कि जो निर्मम, कठोर और अत्याचारी है वह अपने आतंक से भयभीत न कर सके।
इन चार प्रमुख रसों, शृंगार, वीर, रौद्र और वीभत्स के अतिरिक्त अन्य पांच रस भी जीवन में सही मात्रा में होने जरूरी हैं। उदाहरण के लिए करुणा का अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति हरदम रोता रहे, उदासी को अपने से अलग होने ही न दे और हमेशा दूसरों की दया का पात्र होने में ही अपना भला समझे।
पुस्तक पढ़ते, नाटक देखते, संगीत सुनते हुए हमारे मन में जो भाव आते हैं, वही अक्सर हम बाहर प्रकट करते हैं। यही भाव किसी भी कृति के अच्छे लगने या खराब महसूस करने के कारण हैं। निष्कर्ष यही है कि जो मन को भाए वही सुहाता है और जो अच्छा न लगे उसे त्याग देने से ही मन को शांति मिलती है। यही शांत रस जीवन का अंतिम सत्य है।