देश के राजनीतिक दलो के नेता सत्ता पाने के लिए देश को खोखला कर देश की जनता को मुफ्तखोरी के जाल में फंसा कर देश की प्रगति को रोक रहे हैं?

Leaders of the political parties of the country are

देश के राजनीतिक दलो के नेता सत्ता पाने के लिए देश को खोखला कर देश की जनता को मुफ्तखोरी के जाल में फंसा कर देश की प्रगति को रोक रहे हैं?
देश के राजनीतिक दलो के नेता सत्ता पाने के लिए देश को खोखला कर देश की जनता को मुफ्तखोरी के जाल में फंसा कर देश की प्रगति को रोक रहे हैं?

NBL. 09/04/2023, Lokeshwer Prasad Verma Raipur CG: Leaders of the political parties of the country are stopping the progress of the country by hollowing out the country and trapping the people of the country in the trap of freebies to get power?

देश के लोगों की कमजोरी से फायदा उठाना तो इन देश के राजनीतिक नेताओ से सीखनी चाहिए, इतने अच्छे इनके वाक चाटुकारीता होते है, जो खुद योजनाये लाते हैं, और खुद उस योजना का फायदा व नुकसान देश के लोगों को बताते हैं, एक सधै सब सधै सब साधय सब जाये इन राजनीतिक दल नेताओ की एक भी बात उनके खुद के दम बल पर आधारीत नहीं होता, यह बल वक्त के नजाकत को भाँपकर ये नेता लोग उलट पलट करते रहते हैं, और वोट बैंक की राजनीति करते रहते हैं, जिसमें इनको ज्यादा फायदा दिखता है, उन्ही पर इनके फोकस होते हैं, जैसे देश के किसान व देश के मजदूर वर्ग, व देश के शराब ठेके पर ही इन राजनीतिक दलों के नेताओ की बुद्धि ज्यादा तेज काम करता है, क्योकि भारत देश कृषि प्रधान देश है, और इनके आबादी देश में ज्यादा है, और इनके बाद देश में मजदूर की आबादी भी बड़ी संख्या में है, और इन सभी का कमजोरी नशीले पदार्थ व ज्यादा इस्तेमाल करने वाले शराब होते है, और देश के बहुत से महिलाओ के लिए ये शराब का नशा उनके सिरदर्द बनी हुई है, जिसको लेकर सरकार को घेरती रहती है। 

लेकिन राजनीतिक नेता इन शराब बंदी को लेकर भी अपने चुनावी घोषणा पत्र में शामिल कर लेते हैं, इन महिलाओ के हक के लिए और इनके वोट पाने के लिए और इन नेताओ की वोट बैंक का तिजौरी भर जाता है, और सत्ता में काबिज होकर बैठ भी जाते हैं, फिर भी इनके दिए वादे को पुरा नहीं करते और उल्टा लटका कर इनको ही भाषण देते हैं, वर्तमान सरकार छग. कांग्रेस के सीएम भूपेश बघेल अभी दुर्ग शहर में एक कार्यक्रम के दौरान अपना बात मीडिया पत्रकार के सवाल इस शराब बंदी को लेकर पूछे गए और उसका जवाब सीएम भूपेश बघेल इस प्रकार से दिया भूपेश बघेल ने शराबबंदी को लेकर बड़ा बयान दिया है। सीएम बघेल ने दुर्ग में भेंट-मुलाकात के दौरान सीएम बघेल ने कहा कि मुझे राजस्व की चिंता नहीं है। आप लोगों की चिंता ज्यादा है। लोग यहां पर कसम खाएं कि वह शराब छोड़ देंगे। गुड़ाखू नहीं करेंगे। मैं एक आदेश पर शराबबंदी कर देता हूं। उन्होंने कहा कि मेरे लिए मेरी जनता पहले हैं। उनकी जान की कीमत मेरे लिए ज्यादा है।

आप सीएम भूपेश बघेल जी ये शराब बंदी का घोषणा आपके अपने चुनाव घोषणा पत्र में करना ही नहीं था, जब आप जानते हो हमारे प्रदेश के लोग शराब और गुड़ाखू मंजन के बिना नहीं रह सकते और इन नशा करने वाले लोगों का नशा की लत को हम नहीं छुड़ावा सकते है, तो आज इतना बड़ा बात आपके सामने आने का कोई गुंजाइस ही नहीं था, जो आप कसम खा कर शराब बंदी करेंगे बोले थे और अब आप प्रदेश के नशा करने वाले लोगों से कसम खाने के लिए बोल रहे हैं, इन सब बातों को आपको पहले सोचना चाहिए था जो आज आपके लिए संकट खड़ी कर रही हैं, और यह शराब प्रदेश में राजस्व अर्जित करने का बहुत बड़ा हिस्सा है, जिसका आप नुकसान बड़ी आसानी से नहीं कर सकते उपर से इन नशीले लोगों को भी आपको देखना पड़ सकता है और एक तरफ इनके विरोध करने वाले लोगों को भी आपको देखना चाहिए क्योकि आने वाले चुनाव में आपके कथनी और करनी वाले मुद्दा आपके सामने खड़ी होगी।भारत की राजनीति में खैरात बांटने एवं मुफ्त की सुविधाओं की घोषणाएं करके मतदाताओं को ठगने एवं लुभाने की कुचेष्टाओं में सभी राजनीतिक दल लगे हैं। महज राजनीतिक लाभ एवं वोट बैंक को प्रभावित करने के उद्देश्य से मुफ्तखोरी को बढ़ावा देना सरकारों के आर्थिक असंतुलन के साथ ही आत्मघाती उपक्रम है। केंद्र सरकार को उन राज्यों को चेताना चाहिए जो कर्ज चुकाने की क्षमता खोते चले जाने के बाद भी मुफ्त की योजनाओं को बढ़ावा दे रहे हैं। इससे उत्पन्न गंभीर आर्थिक संकट को नजरअंदाज करना राजनीतिक अपरिवक्वता का द्योतक है, वही अवसरवादी एवं स्वार्थ की राजनीति को पनपाने का जरिया है। इस तरह की मुफ्त की संस्कृति एवं जनधन को खैरात में बांटने से किस तरह किसी देश में राजनीतिक संकट खड़ा करने के साथ कानून एवं व्यवस्था के लिए भी चुनौती बन सकता है, इसका ताजा उदाहरण है श्रीलंका। वहां की स्थितियां जिस तेजी से बिगड़ रही हैं, वे भारत के लिए भी चिंता का विषय बन गई हैं।

अपनी सीमा से कहीं आगे बढ़कर लोक-लुभावन वादे करने लगी हैं, उसे किसी भी तरह से जनहित में नहीं कहा जा सकता। बेहिसाब लोक-लुभावन घोषणाएं, अपने आर्थिक संसाधनों से परे जाकर और पूरे न हो सकने वाले आश्वासन पार्टियों को तात्कालिक लाभ तो जरूर पहुंचा सकते हैं, पर इससे देश के दीर्घकालिक सामाजिक और आर्थिक हालात पर प्रतिकूल असर पड़ने की भी आशंका है। प्रश्न है कि राजनीतिक पार्टियां एवं राजनेता सत्ता के नशे में डूबकर इतने आक्रामक कैसे हो सकते है? यह स्थिति चिन्ताजनक है। इसी तरह की स्थितियों से श्रीलंका व पाक जैसे देश का आर्थिक स्थिति बिगडऩे और महंगाई के बेलगाम हो जाने के कारण एक ओर जहां जनता का अंसतोष बढ़ता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक अस्थिरता भी गहराती जा रही है। करीब-करीब हर जरूरी वस्तु के आसमान छूते दामों से नाराज श्रीलंका व पाक की जनता सड़कों पर उतर रही है और वहां के राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री को यह समझ नहीं आ रहा है कि वे करें तो क्या करें?

श्रीलंका व पाक के आर्थिक स्थिति बेकाबू  होते हालात भारत के लिये एक सबक है, क्योंकि पिछले कुछ दौर से भारत में हर दल में मुफ्त बांटने की संस्कृति का प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है। लोकतंत्र में इस तरह की बेतूकी एवं अतिश्योक्तिपूर्ण घोषणाएं एवं आश्वासन राजनीति को दूषित करते हैं, जो न केवल घातक है बल्कि एक बड़ी विसंगति का द्योेतक हैं। किसी भी सत्तारूढ पार्टी को जनता की मेहनत की कमाई को लुटाने के लिये नहीं, बल्कि उसका जनहित में उपयोग करने के लिये जिम्मेदारी दी जाती है। इस जिम्मेदारी का सम्यक् निर्वहन करके ही कोई भी सत्तारूढ पार्टी या उसके नेता सत्ता के काबिल बने रह सकते हैं।

श्रीलंका व पाक की आर्थिक स्थिति जिन कारणों से बिगड़ी, उनमें चीन से कठोर शर्तों पर लिया गया कर्ज तो जिम्मेदार है ही, इसके अलावा वे लोकलुभावन नीतियां भी उत्तरदायी हैं, जो आर्थिक नियमों को धता बताती थीं। कर्ज के बढऩे और विदेशी मुद्रा भंडार खाली होते जाने के बाद भी इन नीतियों को आगे बढ़ाकर श्रीलंका व पाक ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का ही काम किया। यह ठीक है कि भारत श्रीलंका के हालात पर नजर रखे हुए है,लेकिन पाकिस्तान का आर्थिक हालात सामान्य रूप से अभी सही नही है, भारत श्रीलंका पर नजर रखने मात्र इतना ही पर्याप्त नहीं है। इसी के साथ ही उन कारणों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है, जिनके चलते श्रीलंका व पाक गहरे संकट में धंस गया। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि हाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब शीर्ष अधिकारियों के साथ एक बैठक की तो कई अफसरों ने यह कहा कि कुछ राज्यों की ओर से मुफ्त वस्तुएं और सुविधाएं देने का जो काम किया जा रहा है, वह उन्हें श्रीलंका व पाक जैसी स्थिति में ले जा सकता है। इन अफसरों की मानें तो कर्ज में डूबे राज्य मुफ्तखोरी वाली योजनाएं चलाकर अर्थव्यवस्था का बेड़ा गर्क कर रहे हैं।

प्रश्न है कि क्या सार्वजनिक संसाधन किसी को बिल्कुल मुफ्त में उपलब्ध कराए जाने चाहिए? क्या जनधन को चाहे जैसे खर्च करने का सरकारों को अधिकार है? तब, जब सरकारें आर्थिक रूप से आरामदेह स्थिति में न हों। यह प्रवृत्ति राजनीतिक लाभ से प्रेरित तो है ही, सांस्थानिक विफलता को भी ढकती है, और इसे किसी एक पार्टी या सरकार तक सीमित नहीं रखा जा सकता। केजरीवाल सरकार कैंपेन चलाकर आम आदमी की गाढ़ी कमाई के करोड़ों रुपये सरकार की तथाकथित योजनाओं को बताने में खर्च कर दिये हैं कि किस तरह उन्होंने दिल्ली को चमका दिया है। किस तरह मुक्त पानी-बिजली देने के नाम पर सरकारी खजाना खाली कर रहे हैं। जबकि दिल्ली के हालात किसी से छिपे हुए नहीं है। इस तरह का बड़बोलेपन एवं मुफ्त की संस्कृति को पढ़े-लिखे बेरोजगारों ने अपना अपमान समझा। कई बार सरकारों के पास इतने संसाधन नहीं होते कि वे अपने लोगों के अभाव, भूख, बेरोजगारी जैसी विपदाओं से बचा सकें। लेकिन जब उनके पास इन मूलभूत जनसमस्याओं के निदान के लिये धन नहीं होता है तो वे मुफ्त में सुविधाएं कैसे बांटते है? क्यों करोड़ो-अरबो रूपये अपने प्रचार-प्रसार में खर्च करते हैं?

अर्थव्यवस्था और राज्य की माली हालत को ताक पर रखकर लगभग सभी पार्टियों व सरकारों ने गहने, लैपटॉप, टीवी, स्मार्टफोन से लेकर चावल, दूध, घी तक बांटा है या बांटने का वादा किया है। यह मुफ्तखोरी की पराकाष्ठा है। मुफ्त दवा, मुफ्त जाँच, लगभग मुफ्त राशन, मुफ्त शिक्षा, मुफ्त विवाह, मुफ्त जमीन के पट्टे, मुफ्त मकान बनाने के पैसे, बच्चा पैदा करने पर पैसे, बच्चा पैदा नहीं (नसबंदी) करने पर पैसे, स्कूल में खाना मुफ्त, मुफ्त जैसी बिजली 200 रुपए महीना, मुफ्त तीर्थ यात्रा। जन्म से लेकर मृत्यु तक सब मुफ्त। मुफ्त बाँटने की होड़ मची है, फिर कोई काम क्यों करेगा? मुफ्त बांटने की संस्कृति से देश का विकास कैसे होगा? कैसे सरकारों का आर्थिक संतुलन बनेगा? पिछले दस सालों से लेकर आगे बीस सालों में एक ऐसी पूरी पीढ़ी तैयार हो रही है या हमारे नेता बना रहे हैं, जो पूर्णतया मुफ्त खोर होगी। अगर आप उनको काम करने को कहेंगे तो वे गाली देकर कहेंगे, कि सरकार क्या कर रही है?

विडम्बना एवं विसंगति की हदें पार हो रही है। ये मुफ्त एवं खैरात कोई भी पार्टी अपने फंड से नहीं देती। टैक्स दाताओं का पैसा इस्तेमाल करती है। हम ’नागरिक नहीं परजीवी’ तैयार कर रहे हैं। देश का टैक्स दाता अल्पसंख्यक वर्ग मुफ्त खोर बहुसंख्यक समाज को कब तक पालेगा? जब ये आर्थिक समीकरण फैल होगा तब ये मुफ्त खोर पीढ़ी बीस तीस साल की हो चुकी होगी। जिसने जीवन में कभी मेहनत की रोटी नहीं खाई होगी, वह हमेशा मुफ्त की खायेगा। नहीं मिलने पर, ये पीढ़ी नक्सली बन जाएगी, उग्रवादी बन जाएगी, पर काम नहीं कर पाएगी। यह कैसा समाज निर्मित कर रहे हैं? यह कैसी विसंगतिपूर्ण राजनीति है? राजनीति छोड़कर, गम्भीरता से चिंतन करने की जरूरत है।

वर्तमान दौर की सत्ता लालसा की चिंगारी इतनी प्रस्फुटित हो चुकी है, सत्ता के रसोस्वादन के लिए जनता और व्यवस्था को पंगु बनाने की राजनीति चल रही है। राजनीतिक दलों की बही-खाते से सामाजिक सुधार, रोजगार, नये उद्यमों का सृजन, खेती को प्रोत्साहन, ग्रामीण जीवन के पुनरुत्थान की प्राथमिक जिम्मेवारियां नदारद हो चुकी है, बिना मेहंदी लगे ही हाथ लाल पीले करने की फिराक में सभी राजनीतिक दल जुट चुके हैं। जनता को मुफ्तखोरी की लत से बचाने की जगह उसकी गिरफ्त में कर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने में लगे हैं। लोकतंत्र में लोगों को नकारा, आलसी, लोभी, अकर्मण्य, लुंज बनाना ही क्या राजनीतिक कर्त्ता-धर्त्ताओं की मिसाल है? अपना हित एवं स्वार्थ-साधना ही सर्वव्यापी हो चला है? इन स्थितियों के कारण श्रीलंका व पाक जैसे हालात विभिन्न राज्यों में बनने की आहट सुनाई देने लगी है।

बेरोजगारी, व्यापार-व्यवसाय की टूटती सांसें एवं किसानों की समस्याओं को भी हल करने में ईमानदारी बरतने की बजाय सरकारें इसी तरह के लोक-लुभावन कदमों के जरिए उन्हें बहलाती रही हैं। ऐसी नीतियों पर अब गंभीरता से गौर करने की जरूरत है। अपने राज्य की स्त्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करना हरेक सरकार का अहम दायित्व है, लेकिन उनकी मुकम्मल सुरक्षा मेट्रो या बस में मुफ्त यात्रा की सुविधा में नहीं, बल्कि अन्य सुरक्षा उपायों के साथ टिकट खरीदकर उसमें सफर करने की आर्थिक हैसियत हासिल कराने में है। हकीकत में मुफ्त तरीकों से हम एक ऐसे समाज को जन्म देंगे जो उत्पादक नहीं बनकर आश्रित और अकर्मण्य होगा और इसका सीधा असर देश की पारिस्थितिकी और प्रगति, दोनों पर पड़ेगा। सवाल यह खड़ा होता है कि इस अनैतिक राजनीति का हम कब तक साथ देते रहेंगे? इस पर अंकुश लगाने का पहला दायित्व तो हम देश वासी जनता पर ही है।