अमीरी में अभी प्रभु का सच्चा भजन नहीं किया तो फिर गरीबी में करना पड़ेगा




अमीरी में अभी प्रभु का सच्चा भजन नहीं किया तो फिर गरीबी में करना पड़ेगा
पाप और पुण्य दोनों ख़त्म करवा कर सन्त, जीव को कर्म विहीन कर देते हैं
जैसे बच्चे को कई तरह से समझा बहला कर पढ़ाई की तरफ मोड़ते हो, ऐसे ही सतगुरु भी जीव को समझदार बनाते हैं
उज्जैन (म. प्र.)। अपने अपनाए हुए जीवों को पार करके ही दम लेने वाले, उपर की दिव्य रचना, दिव्य अनुभव और वहां की बाधाओं और उनसे बचने का उपाय इशारों में बता कर पहले से ही साधक को तैयार कर देने वाले, इस समय के पूरे समरथ सन्त सतगुरु, परम दयालु, त्रिकालदर्शी, दुःखहर्ता, उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त महाराज ने उज्जैन आश्रम में आयोजित होली कार्यक्रम में 7 मार्च 2023 प्रातः दिए व अधिकृत यूट्यूब चैनल जयगुरुदेवयूकेएम पर लाइव प्रसारित संदेश में बताया कि हमेशा इस धरती पर सन्त, साधक रहते हैं। कभी गुप्त, कभी प्रकट रूप में रहते हैं, संभाल करते रहते हैं। साधक भी जीवों की संभाल करते रहते हैं। उपदेश, एक शब्द में बता देते हैं, उसी से दिल में परिवर्तन आ जाता है। साधक छुप के रहता है। ये अंतर की दौलत तो दरबार से बक्शीश में मिलती है। गलत इस्तेमाल करने पर कट जाता है।
भजन भक्ति तो करना पड़ेगा, चाहे अमीरी में करो या गरीबी में
अमीरी में अभी भजन नहीं किया तो फिर गरीबी मिलेगी। गरीबी में ही भक्ति होती है। पैदा होते ही रोगी हो गए तो मां समझाती है कि बेटा भगवान का नाम लो। संस्कार गुरु के संपर्क से बनता है। उपर के धनियों की नजर नीचे पड़ने पर उस जीव के संस्कार बन जाते हैं तो वक़्त गुरु उसे भी अपने पास खींच लेते हैं। संस्कारी जीव को खींच कर (तुरंत अंतर की दौलत न देकर) उनमें और इच्छा बढ़ाते हैं। जैसे जितनी देर लगती है, उतनी प्यास बढ़ती है, ऐसे ही (अपने चरणों में) लगाए रहते हैं, भाव प्रेम पैदा करते रहते हैं फिर (सही समय पर) वो अनमोल चीज दे देते हैं की अब ये बढ़ाएगा, संभाल लेगा।
अब बहुत सरल कर दिया
स्वामी जी पहले चुनिन्दा को ही नामदान देते थे, ज्यादा कर्मी जीवों को हटा देते थे। पहले सतसंग सेवा से अंत: करण को साफ़ करके फिर नामदान देते थे। वैसी प्रक्रिया यदि चलती रहती तो नरक ऐसे लोगों से ही भर जाता लेकिन सन्त दयाल होते हैं इसलिए उसे बहुत सरल कर उन्होंने उ.प्र. के एक जिले से खुले मंच से ही नामदान देना शुरू कर दिया। यदि मन ध्यान भजन सुमिरन में, सेवा, सतसंग में, सतसंगियों से मिलने में नहीं लगता, केवल खाने-पीने भोगों में लगता है तो समझो कर्म साफ़ करना जरुरी है।
सन्त पाप और पुण्य दोनों को ख़त्म करवा कर जीव को कर्म विहीन कर देते हैं
तन मन धन से पाप बनते हैं इसलिए सेवा भी इन्ही तीनों विशेषकर तन से करवाई जाती है। बुरे के साथ अच्छे कर्मों को भी सन्त कटवा कर जीव को कर्म विहीन कर देते हैं क्योंकि वो भी पार होने में रूकावट है। बेड़ी चाहे सोने (पुण्य) की हो या लोहे (पाप) की, मुक्ति के लिए बाधक है। पुण्य क्षीणे मृत्यु लोके। पुण्य रहे तो स्वर्ग बैकुंठ जाना पड़ेगा, फिर पुण्य क्षीण होने पर वापस इस मृत्युलोक में आना पड़ेगा। गलत कर्म किये, वक़्त के गुरु न मिले तो फिर नरक चौरासी जाना पड़ेगा।
इशारे में बताये अंतर की दिव्य रचना, अनुभव, बाधा और उपाय
शब्द से जुड़ने पर सुरत में ताकत बढ़ती जाती है। साधना में जिस भी लोक में सुरत पहुँचती है, उस लोक के धनी की पॉवर इसमें आ जाता है। प्राणों को खींचने, चक्रों के भेदन यानी रोकने पर देवी-देवताओं की इन पर पड़ने वाली परछाई दिखती है तब उनका दर्शन होता है और उनकी पॉवर इसमें आ जाती है। जैसे गुदा चक्र रुकने पर इंद्र-शची के दर्शन होने पर इंद्रा की ताकत आ जाती है तब जहां चाहे वहां पानी बरसा दे, वेग बढ़ा दे, सूखी नदी नाले में कहीं और से खींच कर पानी ला दे। कुबेर भी वहीं बैठे हैं उनकी शक्ति भी आ जाती है। रिद्धि-सिद्धि जिन्हें एक तरह से गणेश की देवी कह लो, आ जाती है तब किसी चीज की कमी नहीं रहती है जैसे दस रुपये दे दो तो वो बराबर रहेगा, ख़त्म नहीं होगा, बढेगा ही, ख़त्म होगा तो और आ जायेगा।
आगे बढ़े तो इंद्री द्वार पर ब्रह्मा गायत्री सरस्वती आदि का दर्शन होने पर उनकी ताकत आ जाती है। जैसे सरस्वती की ताकत आने पर जैसे बात सुने नहीं की तुरंत जवाब दे दिया, कुछ भी सुनते हैं कविता बना देते हैं। ये सब परछाई देखने के समान है, असली नहीं हैं जैसे मोबाइल में विडियो कॉल से किसी और का रूप देखते हो। तो अंतर साधना में वहां पहुँचने पर साधक में उनकी पूरी पॉवर आ जाती है लेकिन साधक फंस जाता है।
काल भगवान् ने इस तरह का बढ़िया बना रखा है कि साधक को ऐसा लगता है कि यही सतलोक है क्योंकि काल ने उनके जैसा ही राज्य माँगा था तो उसी तरह का बना दिया। तो सतलोक का सुख कोई छोड़ना चाहता है? फंस जाता है। केवल वोही बचता है जिसने निशाना बना लिया कि छोड़ेंगे नहीं जिनको (गुरु को) पकड़ा है तो गुरु वहां भी संभाल करते हैं, फंस जाओगे तो तुमको निकालूँगा। गुरु दिखाई दे जाते हैं, पैर पटक देते, चुटकी बजा देते, मुस्कुरा देते हैं तब साधक उस भुलावे को छोड़ गुरु के पीछे पीछे चल देता है।
इसलिए कहा जाता है कि उनकी उंगली पकड़ने की बजाय (क्योंकि आप छोड़ देते हो) उन्हें अपनी बांह पकड़ा दो। बांह गए की लाज वो रखते हैं। डोर उनके हाथ में दे दो। किसी भी चीज की इच्छा न रखो। तन मन धन सर्वस्व दे दो। आप कह तो देते हो लेकिन मन इसी में लगाए रहते हो। अगर मन हाथ जाए तो जाहि विधि राखे गुरु ताहि विधि रहिये तो गुरु आपको छोड़ने वाले हैं? गुरु तो किसी को नहीं छोड़ते हैं। उनका तो काम ही यही है, इसी लिए तो वो आये हैं।
तब वो आकर याद दिलाते हैं कि यहां (इस रचना में) मत फंस, मन तो रास्ते में त्रिकुटी में समा जायेगा। तू आगे बढ़। सतसंग जरुरी है। गुरु महाराज पहले 9 दिन, 11 दिनों के सतसंग कार्यक्रम रखते थे की जीव एकदम से पक्के हो जाएँ, इनके मन भगने का अंदेशा न रहे। तो जीव पीछे चल देता है तब उनके साथ चलने में कोई रोक-टोक नहीं होती। जब बुद्धि काम नहीं करती है तब गुरु मदद करते हैं, गुरु पर छोड़ देना चाहिए। अंतर में कोई ऐसा-वैसा आदेश मिले तो गुरु को याद करना, प्रणाम करना, उनसे पूछ लेना चाहिए। तो काल, गुरु की आवाज में बोल नहीं पाता, फर्क रहता है, तब पता चल जाता है कि गुरु आदेश दे रहे हैं या काल।