आज राजनीति अपनी चेतना खोती जा रही है और भ्रमित होकर देश में राजनीति कर स्वयं लोकतंत्र की हत्या कर रही है।

Today, politics is losing its consciousness and

आज राजनीति अपनी चेतना खोती जा रही है और भ्रमित होकर देश में राजनीति कर स्वयं लोकतंत्र की हत्या कर रही है।
आज राजनीति अपनी चेतना खोती जा रही है और भ्रमित होकर देश में राजनीति कर स्वयं लोकतंत्र की हत्या कर रही है।

NBL, 01/07/2023, Lokeshwer Prasad Verma Raipur: Today, politics is losing its consciousness and being confused, it is killing democracy itself by doing politics in the country.

किसी भी देश में सफल लोकतंत्र के लिए राजनीतिक दलों का होना आवश्यक है । राजनीतिक दलों को लोकतंत्र का प्राण कहा जाता है, लेकिन आज इस प्राण को लेने के लिए यमराजों की संख्या दिनोदिन बढ़ती जा रही है। जनता आज इन्हीं यमराजों से तबाह हो रही है । वे तरह-तरह के मुद्‌दों की अग्नि सुलगाकर उसमें घी का काम कर रहे हैं । इस ज्वाला की लपटों में झुलसती है तो केवल यहाँ की निर्दोष जनता । राजनीतिक दलों द्वारा उत्पन्न इस संकट से केवल भारत ही नहीं वरन् अमेरिका, रूस, फ्रांस, इटली, इंग्लैंड इत्यादि दुनिया बड़े-बड़े देश जूझ रहे हैं ।

बुद्ध, महावीर, राम, कृष्ण और गांधी जैसे महापुरुषों की यह पुण्य-भूमि सदियों से सिद्धांत, अनुशासन, सत्य और अहिंसा की राह दुनिया को दिखानेवाले भारत के लिए यह कैसी त्रासदी है कि यहाँ राजनीति के दौर की समाप्ति के साथ ही लुभावने नारे, तुष्टीकरण की नीति, धन, हिंसा, असामाजिक और संदिग्ध चरित्रवाले व्यक्तियों का राजनीति में धड़ल्ले से प्रवेश हो रहा है। 

राजनीति में अपराधीकरण की प्रवृत्ति दिनोदिन बढ़ती ही जा रही है । भारत जैसे विकासशील देश में अपराधों के नए तौर-तरीकों और तकनीकों का भी दिन-प्रतिदिन विकास होता जा रहा है । अपराध के इस समीकरण को निम्नलिखित रूप में व्यक्त किया जा सकता है:

* फूट डालो उगैर शासन करो’ की नीति:... 

भारत की स्वतंत्रता-प्राप्ति के समय राष्ट्र के तत्कालीन शीर्ष नेताओं की हठधर्मिता और व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण देश का विभाजन हुआ, क्योंकि वे जानते थे कि एक साथ रहकर अपना मतलब सिद्ध नहीं कर पाएँगे ।

संविधान में अल्पसंख्यकों को विशेषाधिकार देकर और जम्मू-कश्मीर के लिए अनुच्छेद 370 का प्रावधान कर छद्म समप्रदाय को बढ़ावा दिया गया। 'फूट डालो और राज करो' की नीति पर चलने के लिए राज्यों का गठन भी भाषा के आधार पर किया गया।

आज के राजनीतिक दल यह समीकरण बनाते हैं कि किस चुनाव क्षेत्र में किस धर्म को माननेवाले लोग अधिक हैं; किस भाषा को बोलनेवाले अधिक हैं तथा किन जातियों की अधिकता है । इसी को ध्यान में रखकर के सभी राजनीतिक दल अपना उम्मीदवार खड़ा करते हैं ।

अधिकता के पक्षधर प्रत्याशी अपने लुभावने वायदों और भाषणों में बहुमत पक्ष की प्रशंसा तथा अन्य की निंदा करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं । इसके कारण आज समाज कई वर्गों एवं जातियों में विभक्त हो रहा है । सभी एक-दूसरे के कट्‌टर दुश्मन बनते जा रहे हैं, फिर भी मंच पर खड़े होकर इन नेताओं को अखंड भारत कहने में तनिक संकोच नहीं होता ।

सभी दल किसी-न-किसी मुद्‌दे पर अपनी राजनीति चला रहे हैं । पिछड़े वर्गों को आरक्षण, मंदिर-मसजिद विवाद और हिंदुत्व पुनर्जागरण जैसे अंनेक मुद्‌दे प्रमुख हैं । इन मुद्‌दों पर वे नागरिकों में वर्ग-विभेद, विद्वेष, तनाव जैसी स्थितियाँ पैदा कर रहे हैं ।

समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, जनता दल, राजनीतिक दलों ने सवर्णों और अनुसूचित जनजातियों तथा पिछड़ों के बीच विभाजन-रेखा खींच दी है । भाजपा ने हिंदुओं और अल्पसंख्यकों के बीच गहरी खाई खोद दी है ।

कुछ वर्षो पहले कांग्रेस ने हरिजनों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों का विशेष ‘रहनुमा’ बनकर वर्ग-विभाजन फैलाया तो इधर वामपंथी पार्टियों ने पूँजीवादियों और सर्वहारा श्रमिक समुदायों के बीच रेखा खींचकर वर्ग-संघर्ष को बढ़ाया है ।

कभी सरकारी कर्मचारी हड़ताल पर चले जाते हैं, तब सरकार प्रतिद्वंद्वी संगठनों से मिलकर आपस में फूट डालकर हड़ताल को विफल कर देती है । बहुदलीय प्रणाली का प्रादुर्भाव और क्षेत्रीय पार्टियों का गठन इसी राजनीतिक असंतोष की देन है ।

कुछ क्षेत्रीय पार्टियों-तेलगुदेशम डी.एम.के. नेशनल कॉन्फ्रेंस, बसपा, समता पार्टी, झारखंड मुक्ति मोर्चा, बिहार पीपुल्स पार्टी, असम गण परिषद् सिक्किम संग्राम परिषद् आदि संकुचित विचारधारा पर आधारित विभाजन के ही प्रतिफल हैं। 

ये राजनीतिक दल जनता को भड़काकर कभी पूर्वाचल के लिए कभी वनांचल तो कभी बोडोलैंड अलग राज्यों की घोषणा को लेकर उनसे तरह-तरह के अपराध तथा तोड़-फोड़ करवाते हैं । इस प्रकार राजनीतिक दलों ने आम जनता के सहिष्णु स्वभाव को परखकर अपनी दूरी बढ़ाई है । इसमें अपनी प्रतिष्ठा समझकर ‘येन-केन-प्रकारेण’ ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति के अनुगामी ‘भ्रष्ट करो और शासन करो’ की नीति अपनाई है ।

* राजनीति और उपराध के बीच साँठ–गाँठ... 

आज राजनीतिक दलों और अपराधियों के बीच स्वार्थ-पूर्ति के लिए मित्रता है । अपराधी का काम जहाँ समाज-विरोधी और राष्ट्र-विरोधी कार्यो में लिप्त रहना है, वहीं राजनीति और राजनीतिज्ञों का कार्य समाज और राष्ट्र के संपूर्ण विकास से संबंधित है, लेकिन आज दोनों के बीच एक सामंजस्यपूर्ण संबंध विकसित हो रहा है ।

आज की राजनीति में हत्यारों तथा असामाजिक तत्त्वों की खुलकर मदद ली जा रही है । नेता अपना महत्त्व बनाए रखने के लिए गुंडे, माफिया गिरोहों तथा डकैतों जैसे असामाजिक तत्त्वों को पालते हैं ।

* चुनाव में हिंसा: चुनावों में हिंसा इतनी प्रभावी हो चुकी है कि कई स्थानों पर तो विजयश्री इसके सिर ही बँधती है । राजनीतिक दल अपने प्रत्याशी की विजय के लिए प्रचार-कार्य पर उतना जोर नहीं देते हैं जितना मारकाट, बेईमानी तथा गुंडागर्दी पर ।

* कानूनों की उवहेलना: न्यायपालिका को नागरिकों के हितों और अधिकारों का एक रक्षक माना जाता है । लेकिन इसके भी आज भ्रष्टाचार में लिप्त होने के कारण लोगों का इसपर से विश्वास घटता जा रहा है । कई अवसरों पर न्यायपालिका के निर्णय को निष्प्रभावी बनाने के लिए संविधान में आवश्यक संशोधन भी किए गए हैं । हमारे न्यायिककर्मियों की कानूनी तैयारी पूँजीवादी है। 

पैसे के बल पर जब एक अधिवक्ता इंदिरा गांधी के हत्यारों को फाँसी कुछ समय के लिए रुकवा सकता है तब एक वरिष्ठ नेता पैरवी कर एक अपराधी को कानून के शिकंजे से क्यों नहीं छुड़ा सकता ? इस प्रकार कानून-निर्माता ही कानून की अवहेलना करता है तो उनके इशारों पर काम करनेवाली न्यायपालिका कानून की रक्षा क्या करेगी ?

* प्रशासनिक व्यवस्था कमजोर: आजकल बंदूक की नोंक पर मतपेटियाँ लूट ली जाती हैं या अपनी इच्छानुसार बोगस वोट डाला जाता है और प्रशासन चुपचाप खड़ा होकर तमाशा देखता है, क्योंकि यहाँ की प्रशासनिक व्यवस्था भी नेताओं की गुलामी से जकड़ी हुई है । ये गुलाम वर्तमान सरकार का गुण गाते हैं तथा उसके इशारों पर काम करते हैं। 

* राजनीतिक दलों की बदलती मनोवृत्ति: राजनीतिक दलों के मन में देश हित से विमुख होकर सत्ता-पद का मोह प्रबल है । परार्थ का स्थान स्वार्थ ने ले लिया है, फलत: राजनीति में स्वार्थपूर्ति के लिए छल-कपट आदि का प्रयोग बेहिचक किया जाता है । पदों तथा स्वार्थों के लिए अहिंसा के पुजारियों ने धीरे-धीरे हिंसा का मार्ग अपनाना शुरू कर दिया है । चुनाव के समय ये राजनीति दल विनम्रता, शालीनता और मधुर-भाषिता की चादर ओढ़े जनता को उलटे उस्तरे से छूते नजर आते हैं। 

सामान्यत: राजनीतिक दलों की कोशिश रहती है कि गलत कार्य करनेवाले कार्यकर्ताओं और नेताओं को संरक्षण-प्रश्रय दिया जाए । इस अवांछनीय प्रवृत्ति का लाभ उठाने के लिए अपराधी तथा असामाजिक तत्त्व राजनीतिक दलों के सदस्य तथा सक्रिय कार्यकर्त्ता बन जाते हैं। 

अपराधियों के राजनीतिक संबंध होने के कारण पुलिस उनसे डरती है तथा उसके खिलाफ दर्ज मुकदमे पर कोई सुनवाई नहीं होती । फलत: ऐसे असामाजिक तत्त्व और हत्या जैसे अपराधों के अभियुक्त भी बड़ी संख्या में सांसद, विधायक और कई बार तो मंत्री तक बनने में सफल हो जाते हैं। 

ऐसे विधायकों और सांसदों के बेटे, नाती और पोतों को अपराध करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त है । दूसरी ओर, आर्थिक-राजनीतिक प्रभुता के बीच देशी-विदेशी अलगाववादियों के बीच अटूट गठबंधन होता है । क्षेत्रों, वर्गों, समुदायों के बीच स्वहितों का अंतर्विरोध तीखा हो रहा है। 

दरिद्रता, अशिक्षा और भविष्यहीनता से ग्रस्त जनता रिश्वत, भुखमरी, खुफियागिरी, दमन, बलात्कार और हिंसा में लिप्त प्रशासन, क्षेत्रीय असंतुलन, विषमता और पिछड़ेपन से नाराज इलाके और सबसे ऊपर भ्रष्ट, स्वार्थी, अपराधी, नेताशाही-भारतीय राष्ट्रीयता के विघटन की सारी सामग्री तैयार है। 

अत: तथ्यों से यह स्पष्ट हो रहा है कि वर्तमान में राजनीति किस हद तक पतित हो चुकी है तथा नेतागण कितने स्वार्थी और चरित्रहीन हो गए हैं । राजनीति में बढ़ते अपराध का कारण यह नहीं है कि राजनीतिक दलों में दुर्जन सक्रिय हैं बल्कि सज्जन (जनता) ही निष्क्रिय हैं। 

जनता यह आशा लगाए बैठी है कि कोई चमत्कार या महापुरुष इस समस्या से निजात दिला देगा, लेकिन यह उसका भ्रम है, क्योंकि जब तक जनता स्वयं सक्रिय नहीं होगी तब तक समाज में दुर्जनों का बोलबाला बना रहेगा । इस समस्या का समाधान सिर्फ जनता के हाथ में है । यह अलग बात है कि वह इसके लिए कब तक तैयारी होगी।