अगर विपक्ष को सत्ता पक्ष से लड़ना है तो इसमें संसदीय कार्यवाही रोकने की क्या जरूरत है? इससे संसद की गरिमा गिर रही है और देश के लोकतन्त्र पर बुरी असर पड़ रही है।

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अगर विपक्ष को सत्ता पक्ष से लड़ना है तो इसमें संसदीय कार्यवाही रोकने की क्या जरूरत है?  इससे संसद की गरिमा गिर रही है और देश के लोकतन्त्र पर बुरी असर पड़ रही है।
अगर विपक्ष को सत्ता पक्ष से लड़ना है तो इसमें संसदीय कार्यवाही रोकने की क्या जरूरत है? इससे संसद की गरिमा गिर रही है और देश के लोकतन्त्र पर बुरी असर पड़ रही है।

NBL, 25/07/2023, Lokeshwer Prasad Verma Raipur CG: If the opposition has to fight with the ruling party, then what is the need to stop the parliamentary proceedings? Due to this the dignity of the Parliament is falling.

देश की तरक्की का सारा दारोमदार हमारे माननीय सांसदों पर है। संसदीय प्रणाली के जरिये देशहित के कामकाज संपन्न होते हैं। परंतु हाल के दिनों में ऐसा लगा कि सांसद सदन की गरिमा का खुद ही खयाल नहीं रख रहे हैं। खास तौर पर विपक्षी पार्टियों ने कई बार संसदीय कार्यवाही को नहीं चलने दिया जा रहा है जिससे कई गंभीर मसलों पर विचार-विमर्श नहीं हो पा रहे हैं।

जैसे महंगाई/बेरोजगारी व देश में हो रहे आज महिलाओ के उपर अत्याचार व देश में हो रही हिंसा व बाढ़ पीड़ितों को राहत देने जैसे गंभीर मुद्दों पर सांसदों की सक्रियता आज कम होती जा रही है। राजनीतिक पेच लड़ाते वक्त जन प्रतिनिधि अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों को भूल जाते हैं। अगर विपक्ष को सत्ता पक्ष से लड़ाई ही लड़नी है, तो इसमें संसदीय कार्यवाही को ठप करने की क्या आवश्यकता है ? विपक्ष को चाहिए कि वह सरकार की गलत नीतियों को रोकने के लिए जनता के बीच जाए, न कि संसदीय प्रणाली की गरिमा को ठेस पहुंचाए ।

लोकसभा के इस पवित्र मंदिर संसद में सांसदों के अमर्यादित आचरण से संविधान के प्रति देशवासियों की आस्था में कमी आ रही है। जनप्रतिनिधियों के बीच भाषा में गिरावट व हाथापाई की नौबत भी आम बात हो गई है। जनसेवक सदन में जैसा आचरण करेंगे, सदन के बाहर भी वैसी ही देश में संस्कृति विकसित होगी देश में। सांसद देश के कानून निर्माता हैं। यक्ष प्रश्न है कि जब कानून के निर्माता ही कानून की अनुपालना न करके अराजकता का परिचय देंगे, तो इस राष्ट्र में संविधान व कानून की रक्षा कैसे होगी? संसद मर्यादित स्थान है, जिसकी गरिमा को अक्षुण्ण बनाए रखना हर माननीय सदस्य का नैतिक दायित्व है।

भारत की संसद का सत्र आहूत होता है, बड़ी तैयारियां होती हैं, बड़ी-बड़ी अपेक्षाएं सारा देश रखता है, सांसद आते हैं, सारी सुविधाओं और विशेषाधिकारों का उपयोग करते हैं, अपना वेतन और भत्ते लेते हैं मगर संसद नहीं चलने देते हैं। अधिकांश के चेहरों पर तो कोई चिंता या असमंजस का आभास भी दिखाई नहीं देता है। अब तो लोगों को भी यह लगभग सामान्य सा लगने लगा है। मीडिया में खबरें आती हैं कि संसद पर प्रतिदिन करोड़ों का व्यय होता है, इसमें माननीय सांसदों के वेतन, भत्ते तथा अनगिनत अन्य भत्ते शामिल होते हैं। संसद चले या न चले, इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

प्रत्येक सजग नागरिक जानता है कि संसद में व्यवधान केवल दलगत राजनीतिक लाभ लेने के लिए डाले जाते हैं, इनका राष्ट्रहित से कोई लेना-देना नहीं होता है। राजनीति करने वालों तथा राष्ट्र नीति को सामने रखकर राष्ट्रसेवा करने वाले राजनीतिज्ञ के बीच का अंतर अब भारत में हर मतदाता समझने लगा है। वह जानता है कि आज के नेता की निकट दृष्टि अपने तथा अपनों तक सीमित है और उसकी दूरदृष्टि अगले चुनाव पर जाकर ठहर जाती है। ऐसा नहीं है कि अपवाद नही हैं या देश में राष्ट्रहित में चिंतन करने वाले राजनीतिज्ञ नहीं हैं। मगर वे पतन की स्थितियों को देखकर भी उनमें परिवर्तन का प्रयास क्यों नहीं कर रहे हैं, यह स्वयं में एक पहेली है?

इस देश ने सदा उन्हीं का सम्मान किया है जो निष्काम कर्म को अंगीकार कर जनसेवा में आए। राष्ट्रसेवा में आए। इस देश ने भामाशाह को तभी सम्मान दिया जब उन्होंने सर्वस्व दान कर दिया। इसने उन डॉ. राजेंद्र प्रसाद का सम्मान किया जो राष्ट्रपति पद से हटने के बाद जब पटना पहुंचे तब उनके पास रहने की जगह नहीं थी। वे सदाकत आश्रम के एक कमरे में रहे। उनके बैंक खाते में कुछ सौ रुपये थे जो संभवत: आज भी बैंक सहेजे हुए है। लालबहादुर शास्त्री के दुखद देहांत के उनके परिवार की आर्थिक स्थिति चिंतनीय थी। आज हमारे सांसद स्वयं अपने वेतन-भत्ते बढ़ा लेते हैं। जिस देश में कम से कम तीस करोड़ लोग भूखे सोते हों, जहां लगभग 35-45 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हों, वहां के सांसद कैंटीन में सब्सिडी युक्त भोजन करें यह हास्यास्पद है देश लोकतन्त्र के लिए। 

पांच-छह दशक पहले सांसदों तथा मंत्रियों के लिए जनता के मन में आज के अपेक्षा बहुत मान-सम्मान हुआ करता था। पहले अधिकांश चयनित प्रतिनिधि वे थे जिनके त्याग, तपस्या से जनता परिचित थी। कितने ही स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने पेंशन लेने से मना कर दिया। यदि देश किसी के लिए पूज्यनीय विशेषण का प्रयोग कर सकता था, तो वे यह लोग थे और अधिकांश ऐसे ही लोग विधायक और सांसद बने थे। गांधीजी का जंतर उनके सामने था कि जब भी तुम्हें संदेह हो या तुम्हारा अहम् तुम पर हावी होने लगे, तो यह कसौटी अपनाओ जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शकल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा। क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुंचेगा। यानी क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज्य मिल सकेगा जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त है। तब तुम देखोगे की तुम्हारा संदेह मिट रहा है और अहम् समाप्त होता जा रहा है।

यह कह पाना कठिन है कि आज के कितने चयनित जनप्रतिनिधियों ने गांधी को समझने का प्रयास किया होगा। कितनों ने यह वाक्य पढ़ा होगा। प्रसिद्ध शिक्षाविद और वैज्ञानिक डॉक्टर दौलत सिंह कोठारी चाहते थे कि हर देशवासी गांधीजी के इस अद्भुत जंतर से प्रारंभिक शिक्षा के समय से ही परिचित हो जाए। उन्हीं के सुझाव पर राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद यानी एनसीइआरटी अपनी सभी पुस्तकों के प्रारंभ में पूरे पृष्ठ पर आकर्षक ढंग से यह जंतर वाक्य प्रकाशित करती है। इसका प्रभाव व्यापक रूप से क्यों नहीं पढ़ा, इसकी विवेचना होनी चाहिए। बच्चे तो सदा आदर्श की खोज करते हैं और अनुसरण करने के लिए उत्सुक रहते हैं। जब उन्हें स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास, बापू के आदर्श संसद की महत्ता, जनतंत्र में सामान्य जन की सर्वोपरिता के पाठ पढ़ाए जाते है, तब वे आज के सांसदों, मंत्रियों तथा संसद और विधानसभाओं के कार्यकलापों की ओर ध्यान देते हैं।

जो अंतर आया है वह अब वे स्वयं समझते हैं। जब माननीय सांसद अध्यक्ष के निर्देशों को नकारते हैं तो उसका नकारात्मक प्रभाव देश के स्कूलों, महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों के अनगिनत विद्यार्थियों पर पड़ता है। आज का युवावर्ग अत्यंत सजग है। वह बिना हिचक यह कहते पाया जाता है कि राजनेताओं को क्रिकेट में क्यों आना चाहिए? आइपील घोटाले में जिम्मेवारी किसी की भी हो, युवा वर्ग नेताओं को ही दोषी मानता है। राष्ट्रमंडल खेलों ने राजनेताओं की साख की जो मिट्टी पलीद की वह भुलाई नहीं जा सकेगी। माननीय सांसद जब बिना काम किए वेतन-भत्ते लेंगे तो वह अन्य लोगों से कैसे कहेंगे कि ऐसा न करें। वे छोटी-छोटी समस्याओं को लेकर हड़ताल करने वालों को कैसे समझाएंगे। क्या यह सब उनके कर्तव्यों में नहीं आता है। जनहित से जुड़ा ऐसा क्या हो सकता है जिसमें निर्वाचित प्रतिनिधि के योगदान की संभावना नहीं बनती हो।

भारत की संसद और उसके सांसद भारत की गरिमा और अस्मिता के प्रतीक हैं। संसद में जो कुछ होता है उससे हर देशवासी का, देश का और भारत के शहीदों, स्वतंत्रता सेनानियों का यश और गौरव प्रगट होता है। इस समय जो कुछ हो रहा है वह सारे देश में एक हताशा का माहौल पैदा कर रहा है। आज 85 करोड़ कार्यशील आबादी रखने वाले देश में आवश्यकता अनुकरणीय उदाहरणों की है न कि अपने निर्धारित कार्य से भागकर, अकर्मण्यता और गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार की। अब ऐसा कुछ भी नहीं है जो जनता नहीं जानती-समझती हो। भारत की संसद में जो कार्य-संस्कृति अपनाई जाएगी, उसका प्रभाव सारे देश की कार्य संस्कृति पर पड़ता है। यह माननीय सांसदों के लिए यही पहला पाठ बन जाए और वे इसका अनुसरण करें तो समस्या सुलझ जाएगी ।