हमें धर्म की कोई भी नई परिभाषा देने से पहले यह देखने की जरुरत है कि जिसको हम अभी तक धर्म कहते आये हैं वो क्या है?




NBL,. 22/02/2022, Lokeshwer Prasad Verma,.. हम सभी का मन जैसा है, हमें धर्म की कोई भी नई परिभाषा देने से पहले यह देखने की जरुरत है कि जिसको हम अभी तक धर्म कहते आये हैं वो क्या है? पढ़े विस्तार से..।
जिसको हम आमतौर पर धर्म कहते हैं वो एक तरह का संगठन है, जन्म लेते ही आपको बिना बताये उसका एक सदस्य बना दिया जाता है, आपको उसके रीती-रिवाजों से रूबरू कराया जाता है, आपको कुछ ही समय में वो सारी बातें बिलकुल स्वाभाविक लगने लगती हैं जो शायद किसी दूसरे संगठन के व्यक्ति के लिए बिलकुल अनजानी हो। यदि आप एक हिन्दू घर में पैदा हुए हैं तो आप मंदिर के आगे अपना सर झुकाना शुरू कर देते हैं और यदि आप मुस्लिम घर में जन्मे हैं तो मस्जिद देख आपका सर खुद-ब-खुद झुक जाता है।
आपके कपड़े, आपका खाना-पीना, आपका रहन-सहन हर चीज़ इस बात पर निर्भर करता है कि आपके पास कौन से संगठन की सदस्यता है। जैन धर्म के लोगों के लिए मच्छर मारना भी पाप है तो ईसाइयत में थैंक्स-गिविंग का त्यौहार जानवर को मार कर ही मनाया जाता है। अगर बात को साफ-साफ समझेंगे तो पाएंगे कि आप जो कुछ भी करना चाहते हैं, आपने उसी को धर्म का नाम दे दिया है, खाना, नए कपड़े खरीदना, दफ्तर से छुट्टी, स्वजनों से मिलना, घूमना, इन्हीं सब चीजों को आज धर्म के नाम पर प्रोत्साहन मिल रहा है।
जो भी कुछ आज हमारे आसपास मौजूद है धर्म के नाम पर, वो धर्म का एक विकृत रूप है, धर्म का वास्तविक अर्थ होता है ‘वो जो करने योग्य है’, जो उचित है, और उचित-अनुचित का भेद कर पाने के लिए आपका होश बहुत ज़रूरी है, इसलिए आपका असली धर्म है आपका होश, और फिर अधर्म हुआ आपका बेहोश होना। यहाँ होश से मेरा मतलब मन की जागृत अवस्था से नहीं, होश का मतलब है ध्यान को उपलब्ध होना।
जो भी कर्म होश से, समझ से निकला है वही धर्म है, और जो कुछ आपकी मूर्छा का परिणाम है वही अधर्म है, इसी होश को सनातन धर्म भी कहा जाता है, क्योंकि इसका कोई आदि या अंत नहीं होता, होश ‘आपका’ नहीं होता, ध्यान ‘आपका’ नहीं होता, आप ध्यान को उपलब्ध होते हैं, और जो आपको उसकी ओर ले जाए वही आपका धर्म है और जो आपको उससे दूर करे वही अधर्म है।
और देखें तो, संगठित धर्म भी सनातन धर्म से ही निकलता है, पर वो स्थान व समय सापेक्ष होता है, जिस तरह उसका जन्म होता है उसी तरह उसको जाना भी होता है, पर दिक्कत तब आती है जब वो जाने वाला जाने से मना कर देता है। फिर वह तरह-तरह के विकृत रूपों में आपके सामने आता है।
धर्म का एक दूसरा मतलब भी होता है, वो जो जोड़ कर रखता है, यहाँ से भी देखें तो पायेंगे बात वही है, धर्म वो है जो आपके मन को बटने नहीं देता जो उसे बाँध कर रखता है, जो होश को खंडित नहीं होने देता, जो विधियाँ आज के समय में अलग-अलग संगठित धर्मों की रूड़ियाँ बन चुकी हैं उनका जन्म भी कभी-न-कभी ऐसे ही हुआ था, वहाँ भी रीतियों का एक ही उद्देश्य था कि आपको ध्यान को उपलब्ध करा सकें, पर जैसे ही आपका उद्देश्य विकृत होने लगता है, धर्म भी अधर्म में तब्दील हो जाता है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि आज ज्यादातर लोग धर्म के नाम पर अधर्म में जीते हैं।
लेकिन यह भी याद रहे कि अधर्म से धर्म तक की कोई यात्रा नहीं होती, यहाँ तो आयामों में ही अंतर होता है, आप धीरे-धीरे धार्मिक नहीं होते, या तो आप धार्मिक हैं या नहीं है, या तो आप होश में हैं या नहीं है, बस इतना ज़रूर है कि होश में उठाया कोई भी कदम आपको अगला कदम भी होश में उठाने में मदद करता है, और इसका विपरीत भी उतना ही सिद्ध है, बेहोशी आपको और बेहोशी में धकेलती है।