मोक्ष पाने के लिए: काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार-इन पांच विकारों के त्याग को बहुत महत्व दिया गया है, धर्म ग्रंथ मे लेकिन क्या सचमुच मानव इन विकारों का पूरी तरह से त्याग करने में सक्षम है?

Great importance is given to the renunciation of these five vices

मोक्ष पाने के लिए: काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार-इन पांच विकारों के त्याग को बहुत महत्व दिया गया है, धर्म ग्रंथ मे लेकिन क्या सचमुच मानव इन विकारों का पूरी तरह से त्याग करने में सक्षम है?
मोक्ष पाने के लिए: काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार-इन पांच विकारों के त्याग को बहुत महत्व दिया गया है, धर्म ग्रंथ मे लेकिन क्या सचमुच मानव इन विकारों का पूरी तरह से त्याग करने में सक्षम है?

NBL, 21/05/2022, Lokeshwer Prasad Verma,. Great importance is given to the renunciation of these five vices: lust, anger, greed, attachment and ego – in the scriptures, but is human really capable of giving up these vices completely?

हमारे धर्म ग्रंथों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पाने के लिए काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार-इन पांच विकारों के त्याग को बहुत महत्व दिया गया है। लेकिन क्या ये विकार पूरी तरह त्याज्य हैं? या मानव क्या सचमुच इन विकारों का पूरी तरह से त्याग करने में सक्षम है?, पढ़े विस्तार से... ध्यान से सोचें तो ये पांच-काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार-पूरी तरह से विकार की श्रेणी में नहीं आते। जब ये अपनी सीमा का उल्लंघन करते हैं या यों कहें जब इनकी अति होती है, तभी ये विकार बनते हैं। अन्यथा इनके बिना मानव अपना सांसारिक जीवन ही नहीं चला पाता। अति तो भोजन की भी दु:खदाई होती है।

फिर ये पाँच क्यों पहले से ही विकार की श्रेणी में मान लिए गए हैं? काम या शक्ति के अभाव में पितृ ऋण से मुक्ति संभव नहीं है। क्रोध वह शक्ति है जो आवश्यकता पड़ने पर मानव को सुरक्षा प्रदान करता है। घर या किसी व्यवस्था में एक नियम-अनुशासन स्थापित करता है।

लोभ एक आवश्यकता है, जिसके बिना पारिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह कठिन है। मोह मानव को पितृत्व व मातृत्व के साथ-साथ अन्य रिश्तों के दायित्व को निभाने की प्रेरणा देता है। मनुष्य की जिस वृत्ति को हम अहंकार कहते हैं, उसके लिए 'अहंकार' शब्द का प्रयोग तब किया जाता है, जब वह अपनी सीमा का उल्लंघन करती है, अन्यथा इससे पूर्व तो वह स्वाभिमान होता है, जिसका प्रत्येक मानव में होना आवश्यक है।

स्वाभिमान के बिना जीवन कोई जीवन नहीं रह जाता। चार पदार्थ-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए एक और मार्ग भी बतलाया गया है, और वह है अध्यात्म का मार्ग। अर्थात ध्यान और साधना का मार्ग। ध्यान-साधना ही वह मार्ग है, जो अध्यात्म के लक्ष्य तक पहुँचाता है। अपने मूलरूप की और प्रभु की अनुभूति कराता है।

प्रकृति प्रदत्त सोई शक्तियों को जागृत करता है। इस कार्य में चार सद्गुण यथा ज्ञान, सहज, निर्दोष और सम सदा सहायक होते हैं। किसी भी कार्य /साधना के प्रारम्भ में सबसे पहले उसके प्रति ज्ञान का होना आवश्यक है, अन्यथा उस कार्य का आरम्भ व संचालन ही संभव नहीं। दूसरे, यदि कार्य का कर्ता/ साधक स्वयं में सहज नहीं रहता तो वह कार्य का संचालन या निष्पादन ठीक ढंग से नहीं कर पाता।

तीसरे, कर्ता और कार्य का पूरी तरह से निर्दोष होना जरूरी है, क्योंकि दोषी व्यक्ति गलत साधन का प्रयोग करता है और दोषपूर्ण कार्य गलत लक्ष्य पर ले जाता है। चौथे, कार्य संपन्न होने के बाद उससे होने वाले लाभ-हानि की चिन्ता न करते हुए हर हाल में समभाव में बने रहना ही मानव की श्रेष्ठ उपलब्धि है। ये ही चार गुण मानव को अध्यात्म मार्ग पर ले जाते हैं और धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति में सहायक बनते हैं। किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति निर्विघ्न संभव नहीं होती। मार्ग में अवरोध न आएं तो वह मार्ग ही क्या।

हमें श्रम के महत्व की अनुभूति तो ये अवरोध ही कराते हैं। अपनी श्रेष्ठता विषम परिस्थिति में ही सिद्ध की जा सकती है। इसलिए भगवान ने चार अवगुण यथा राग, द्वेष, निन्दा और असत्य को भी इस मानव मन में डाल दिया। इसीलिए सभी धर्मग्रंथों में इन चार अवगुणों से अपने को पूर्णतया मुक्त रखने का उपदेश दिया गया है। सच मानिए, यदि मानव अपने जीवन में उपरोक्त चार सद्गुणों को अपना ले व उपरोक्त चार अवगुणों को त्याग दे, तो मानव मन निर्मल हो जाएगा।

मन के निर्मल हो जाने से आध्यात्मिक उन्नति सहज हो जाएगी। आध्यात्मिक उन्नति का अर्थ है मानव की चेतना के स्तर का ऊपर उठना। चेतना का स्तर ऊपर उठ जाने से उपरोक्त चार पदार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति स्वत: ही सहज हो जाएगी। इसीलिए जिसका मन निर्मल है, वही इन चार तत्वों को पाने का अधिकारी है- बस यही है अध्यात्म की कुंजी!.