जाति व्यवस्था के लिए मनुवाद, मनु स्मृति को क्यों दोषी ठहराया जाता है? जबकि मनु स्मृति ही मानव धर्म का सच्चा संविधान है।
Why are Manuvad, Manu Smriti




NBL, 17/02/2024, Lokeshwar Prasad Verma Raipur CG: Why are Manuvad, Manu Smriti blamed for the caste system? Whereas Manu Smriti is the true constitution of human religion. पढ़े विस्तार से...
सनातनी धर्म, संस्कृति और संस्कार विश्व का सबसे प्राचीन धर्म है, मनु से ही मानव जाति की उत्पत्ति हुई है, मनुवाद और मनुस्मृति में मानव जाति और लिंग भेद के लिए कोई स्थान नहीं है, सत्य को दबाकर चार लोक बनाए गए हैं। उन्हें चार वर्णों में बाँटकर भेदभाव पैदा किया गया। चारों वर्णों में ब्राह्मण पहली श्रेणी में, क्षत्रिय दूसरी श्रेणी में, वैश्य तीसरी श्रेणी में और शूद्र चौथी श्रेणी में थे। इन चारों वर्णों के माता-पिता एक ही हैं और चारों वर्णों के मनुष्य स्त्री-पुरुष एक ही शरीर के हैं। यदि हम एक ही से पैदा हुए हैं तो फिर जातिगत भेदभाव कैसा? हम सभी एक ही माता-पिता की संतान हैं, इसलिए चारों वर्णों के मनुष्य भाई-बहन हुए और अपने मानव समाज के विस्तार के लिए एक-दूसरे से संबंध स्थापित करके हम दोनों ने मानव जाति का विस्तार और विकास किया। तो कैसा भेदभाव?
मनु कहते हैं- जन्मना जायते शूद्रः कर्मणा द्विज उच्यते। अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं और अपने कर्मों से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं। वर्तमान समय में 'मनुवाद' शब्द को नकारात्मक अर्थ में लिया जा रहा है। ब्राह्मणवाद को मनुवाद के पर्याय के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। दरअसल, मनुवाद का प्रचार करने वाले लोगों को मनु या मनुस्मृति के बारे में पता ही नहीं है या फिर वे अपने निहित स्वार्थों के लिए मनुवाद का राग अलापते रहते हैं। दरअसल, जिस जाति व्यवस्था के लिए मनुस्मृति को दोषी ठहराया जाता है, उसमें जातिवाद का जिक्र तक नहीं है।
आधुनिक संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव अम्बेडकर को शूद्र परिवार में जन्म लेने के कारण अनेक यातनाओं का सामना करना पड़ा और आज भी वे पूजनीय क्यों हैं? क्योंकि उसने अपना कर्तव्य बखूबी निभाया, जबकि उसके संविधान संशोधन में उसके शूद्र (दलित) कुल के उत्थान के लिए केवल दस वर्षों के लिए आरक्षण का प्रावधान था, लेकिन कांग्रेस पार्टी ने अपनी वोट बैंक की राजनीति और महात्मा के लिए इसे अपना मुख्य हथियार बना लिया गांधी जी ने दलित समुदाय को हरिजन नाम भी दिया और जातिगत भेदभाव पैदा किया, जबकि उन्होंने इन चारों वर्णों के आपसी भेदभाव को खत्म करने की कोशिश की होती और आज भी देश की राजनीति में इन चारों वर्णों की जाति की चर्चा हो रही है।
आरक्षण देने के नाम पर भेदभाव किया जा रहा है और राजनीति की जा रही है, इसलिए आज दलित समाज के कई लोग आरक्षण के भूखे हैं, इसलिए मनुवादी मनुस्मृति को अपना दुश्मन मानते हैं, जबकि मनुस्मृति में ऐसा कोई जातिगत भेदभाव नहीं किया गया है, जिससे मानव जाति विभाजित हो जाए उनके जीवन, प्राचीन मानव जाति के विस्तार के कारण ही मनुष्य बुद्धिमान हो गया है। ईश्वर के मुख से जन्मे मनुष्य ही उच्च ब्राह्मण हैं जो स्वयं को सर्वोच्च जाति वर्ग का बताते हैं। वैसा ही क्षत्रिय बोलते हैं बाकी सब हमसे नीचे हैं. बाकी लोग जो जन्मा है वह सब शूद्र है।
ये निम्न वर्ग की मानव जाति हैं, ये कैसा अजीब भेदभाव पैदा कर दिया है जो आज के आधुनिक युग के मानव को भ्रमित कर देता है, जब भगवान मनु एक हैं, उनकी पत्नी सतरूपा एक हैं और इन दोनों की संतानें चारों स्थानों से प्रकट हुई हैं एक हैं. यदि ऐसा है तो फिर मनुष्य को एक ऊंची जाति का और एक को निचली जाति का कैसे कहा जा सकता है, जबकि मनुवाद मनु स्मृति में अपने कर्मों के अनुसार छोटा या बड़ा बनने का अधिकार दिया गया है और न ही मनुष्य की जाति होने का कोई प्रमाण है ऊंची या निचली जाति दी गई है।
यह सदियों पुराना ज्ञान है, मनुस्मृति ग़लत है, आज भी कुछ लोग मानते हैं, तो फिर वाल्मिकी कौन हैं और किस जाति के थे? उनकी कोई जाति नहीं थी, वे चांडाल यानी डकैत और डाकू थे, इसलिए उन्हें शूद्र, नीच पापी कहां कहा गया, जब उन्होंने सभी पाप करना बंद कर दिया और तपस्वी बन गए, तो वे ऋषि वाल्मिकी बन गए, श्री राम की पत्नी माता सीता जी और उनके पुत्र लव कुश का जन्म ऋषि वाल्मिकी आश्रम में हुआ,जो आज भी पवित्र रामायण ग्रंथ में प्रमाणित है। श्रीराम क्षत्रिय थे ऊँचे कुल जाति का था तो फिर सीता माता नीच कुल में जन्मे ऋषि वाल्मिकी जी के यहाँ शरण क्यों ली जब जाति भेद भाव था मनुस्मृति में तो इसका मतलब जाति भेद भाव करना एक सड़यन्त्र है और मनुस्मृति के सत्य को झुठलाकर मानव जाति में भेद भाव कर स्वार्थ पूर्ति हेतु सदियों पहले के मानव की सोची समझी साजिस है जो अपने आप को ऊँची जाति के इंसान समझते है जो मनुस्मृति के पवित्र संविधान को बदनाम कर रहे हैं और दलित समाज को आज भी नीच जाति कहकर देश दुनिया में राज पाट कर रहे है इन ऊँचे जाति के लोग जबकि अब उल्टा हो रहा है सच्चाई सामने आ रहा है तो नीच जाति के लोग उपर उठ रहे है और ऊँचे जाति के लोग नीचे गिरते जा रहे हैं आर्थिक रूप से।
अब पाप का घड़ा भर गया है अब इनके खुद की होशियारी इनको ही महंगा पड़ रहा है, क्योंकि इन ऊँचे जाति सामान्य वर्गो के लोगों के लिए देश में उतना आरक्षण नही है जितना इन एसटी एससी और ओबीसी को मिल रहा है नौकरी चाकरी व पढ़ने लिखने वाले इस नीचे कुल के लोगों को जो मनुवाद मनुस्मृति में कहाँ गया है आपका कर्म ही आपको फल देता है। अब नीचे कुल के लोगों की शिक्षा का स्तर सुधर रहे है और कर्म के अनुसार आर्थिक रूप से मजबूत हो ही रहे है साथ ही सम्मान भी मिल रही है।
* क्या है मनुवाद : जब हम बार-बार मनुवाद शब्द सुनते हैं,तो हमारे मन में भी सवाल कौंधता है कि आखिर यह मनुवाद है क्या? महर्षि मनु मानव संविधान के प्रथम प्रवक्ता और आदि शासक माने जाते हैं। मनु की संतान होने के कारण ही मनुष्यों को मानव या मनुष्य कहा जाता है। अर्थात मनु की संतान ही मनुष्य है। सृष्टि के सभी प्राणियों में एकमात्र मनुष्य ही है जिसे विचारशक्ति प्राप्त है। मनु ने मनुस्मृति में समाज संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दी हैं, उसे ही सकारात्मक अर्थों में मनुवाद कहा जा सकता है।
* मनुस्मृति : समाज के संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दी हैं, उन सबका संग्रह मनुस्मृति में है। अर्थात मनुस्मृति मानव समाज का प्रथम संविधान है, न्याय व्यवस्था का शास्त्र है। यह वेदों के अनुकूल है। वेद की कानून व्यवस्था अथवा न्याय व्यवस्था को कर्तव्य व्यवस्था भी कहा गया है। उसी के आधार पर मनु ने सरल भाषा में मनुस्मृति का निर्माण किया। वैदिक दर्शन में संविधान या कानून का नाम ही धर्मशास्त्र है। महर्षि मनु कहते है- धर्मो रक्षति रक्षितः । अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। यदि वर्तमान संदर्भ में कहें तो जो कानून की रक्षा करता है कानून उसकी रक्षा करता है। कानून सबके लिए अनिवार्य तथा समान होता है।
जिन्हें हम वर्तमान समय में धर्म कहते हैं दरअसल वे संप्रदाय हैं। धर्म का अर्थ है जिसको धारण किया जाता है और मनुष्य का धारक तत्व है मनुष्यता, मानवता। मानवता ही मनुष्य का एकमात्र धर्म है। हिन्दू मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, सिख आदि धर्म नहीं मत हैं, संप्रदाय हैं। संस्कृत के धर्म शब्द का पर्यायवाची संसार की अन्य किसी भाषा में नहीं है। भ्रांतिवश अंग्रेजी के 'रिलीजन' शब्द को ही धर्म मान लिया गया है, जो कि नितांत गलत है। इसका सही अर्थ संप्रदाय है। धर्म के निकट यदि अंग्रेजी का कोई शब्द लिया जाए तो वह 'ड्यूटी' हो सकता है। कानून ड्यूटी यानी कर्तव्य की बात करता है।
मनु ने भी कर्तव्य पालन पर सर्वाधिक बल दिया है। उसी कर्तव्यशास्त्र का नाम मानव धर्मशास्त्र या मनुस्मृति है। आजकल अधिकारों की बात ज्यादा की जाती है, कर्तव्यों की बात कोई नहीं करता। इसीलिए समाज में विसंगतियां देखने को मिलती हैं। मनुस्मृति के आधार पर ही आगे चलकर महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी धर्मशास्त्र का निर्माण किया जिसे याज्ञवल्क्य स्मृति के नाम से जाना जाता है। अंग्रेजी काल में भी भारत की कानून व्यवस्था का मूल आधार मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति रहा है। कानून के विद्यार्थी इसे भली-भांति जानते हैं। राजस्थान हाईकोर्ट में मनु की प्रतिमा भी स्थापित है।
* मनुस्मृति में दलित विरोध : मनुस्मृति न तो दलित विरोधी है और न ही ब्राह्मणवाद को बढ़ावा देती है। यह सिर्फ मानवता की बात करती है और मानवीय कर्तव्यों की बात करती है। मनु किसी को दलित नहीं मानते। दलित संबंधी व्यवस्थाएं तो अंग्रेजों और आधुनिकवादियों की देन हैं। दलित शब्द प्राचीन संस्कृति में है ही नहीं। चार वर्ण जाति न होकर मनुष्य की चार श्रेणियां हैं, जो पूरी तरह उसकी योग्यता पर आधारित है। प्रथम ब्राह्मण, द्वितीय क्षत्रिय, तृतीय वैश्य और चतुर्थ शूद्र। वर्तमान संदर्भ में भी यदि हम देखें तो शासन-प्रशासन को संचालन के लिए लोगों को चार श्रेणियों- प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ श्रेणी में बांटा गया है। मनु की व्यवस्था के अनुसार हम प्रथम श्रेणी को ब्राह्मण, द्वितीय को क्षत्रिय, तृतीय को वैश्य और चतुर्थ को शूद्र की श्रेणी में रख सकते हैं। जन्म के आधार पर फिर उसकी जाति कोई भी हो सकती है। मनुस्मृति एक ही मनुष्य जाति को मानती है। उस मनुष्य जाति के दो भेद हैं। वे हैं पुरुष और स्त्री।
मनु कहते हैं- 'जन्मना जायते शूद्रः' अर्थात जन्म से तो सभी मनुष्य शूद्र के रूप में ही पैदा होते हैं। बाद में योग्यता के आधार पर ही व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र बनता है। मनु की व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण की संतान यदि अयोग्य है तो वह अपनी योग्यता के अनुसार चतुर्थ श्रेणी या शूद्र बन जाती है। ऐसे ही चतुर्थ श्रेणी अथवा शूद्र की संतान योग्यता के आधार पर प्रथम श्रेणी अथवा ब्राह्मण बन सकती है। हमारे प्राचीन समाज में ऐसे कई उदाहरण है, जब व्यक्ति शूद्र से ब्राह्मण बना। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के गुरु वशिष्ठ महाशूद्र चांडाल की संतान थे, लेकिन अपनी योग्यता के बल पर वे ब्रह्मर्षि बने। एक मछुआ (निषाद) मां की संतान व्यास महर्षि व्यास बने। आज भी कथा-भागवत शुरू होने से पहले व्यास पीठ पूजन की परंपरा है। विश्वामित्र अपनी योग्यता से क्षत्रिय से ब्रह्मर्षि बने। ऐसे और भी कई उदाहरण हमारे ग्रंथों में मौजूद हैं, जिनसे इन आरोपों का स्वतः ही खंडन होता है कि मनु दलित विरोधी थे।
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासिद बाहु राजन्य कृतः। उरु तदस्य यद्वैश्यः पद्मयां शूद्रो अजायत। (ऋग्वेद) अर्थात ब्राह्नों की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य तथा पांवों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। दरअसल, कुछ अंग्रेजों या अन्य लोगों के गलत भाष्य के कारण शूद्रों को पैरों से उत्पन्न बताने के कारण निकृष्ट मान लिया गया, जबकि हकीकत में पांव श्रम का प्रतीक हैं। ब्रह्मा के मुख से पैदा होने से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति या समूह से है जिसका कार्य बुद्धि से संबंधित है अर्थात अध्ययन और अध्यापन। आज के बुद्धिजीवी वर्ग को हम इस श्रेणी में रख सकते हैं। भुजा से उत्पन्न क्षत्रिय वर्ण अर्थात आज का रक्षक वर्ग या सुरक्षाबलों में कार्यरत व्यक्ति। उदर से पैदा हुआ वैश्य अर्थात उत्पादक या व्यापारी वर्ग। अंत में चरणों से उत्पन्न शूद्र वर्ग।
यहां यह देखने और समझने की जरूरत है कि पांवों से उत्पन्न होने के कारण इस वर्ग को अपवित्र या निकृष्ट बताने की साजिश की गई है, जबकि मनु के अनुसार यह ऐसा वर्ग है जो न तो बुद्धि का उपयोग कर सकता है, न ही उसके शरीर में पर्याप्त बल है और व्यापार कर्म करने में भी वह सक्षम नहीं है। ऐसे में वह सेवा कार्य अथवा श्रमिक के रूप में कार्य कर समाज में अपने योगदान दे सकता है। आज का श्रमिक वर्ग अथवा चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी मनु की व्यवस्था के अनुसार शूद्र ही है। चाहे वह फिर किसी भी जाति या वर्ण का क्यों न हो।
वर्ण विभाजन को शरीर के अंगों को माध्यम से समझाने का उद्देश्य उसकी उपयोगिता या महत्व बताना है न कि किसी एक को श्रेष्ठ अथवा दूसरे को निकृष्ट । क्योंकि शरीर का हर अंग एक दूसरे पर आश्रित है। पैरों को शरीर से अलग कर क्या एक स्वस्थ शरीर की कल्पना की जा सकती है? इसी तरह चतुर्वण के बिना स्वस्थ समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
* ब्राह्मणवाद की हकीकत : ब्राह्मणवाद मनु की देन नहीं है। इसके लिए कुछ निहित स्वार्थी तत्व ही जिम्मेदार हैं। प्राचीन काल में भी ऐसे लोग रहे होंगे जिन्होंने अपनी अयोग्य संतानों को अपने जैसा बनाए रखने अथवा उन्हें आगे बढ़ाने के लिए लिए अपने अधिकारों का गलत इस्तेमाल किया होगा। वर्तमान संदर्भ में व्यापम घोटाला इसका सटीक उदाहरण हो सकता है। क्योंकि कुछ लोगों ने भ्रष्टाचार के माध्यम से अपनी अयोग्य संतानों को भी डॉक्टर बना दिया।
हमारे संविधान में कहीं नहीं लिखा भ्रष्ट तरीके अपनाकर अपनी अयोग्य संतानों को आगे बढाएं। इसके लिए तत्कालीन समाज या फिर व्यक्ति ही दोषी हैं। उदाहरण के लिए संविधान निर्माता बाबा साहेब अंबेडकर ने संविधान में आरक्षण की व्यवस्था 10 साल के लिए की थी, लेकिन बाद में राजनीतिक स्वार्थों के चलते इसे आगे बढ़ाया जाता रहा। ऐसे में बाबा साहेब का क्या दोष?
मनु तो सबके लिए शिक्षा की व्यवस्था अनिवार्य करते हैं। बिना पढ़े लिखे को विवाह का अधिकार भी नहीं देते, जबकि वर्तमान में आजादी के 70 साल बाद भी देश का एक वर्ग आज भी अनपढ़ है। मनुस्मृति को नहीं समझ पाने का सबसे बड़ा कारण अंग्रेजों ने उसके शब्दशः भाष्य किए। जिससे अर्थ का अनर्थ हुआ। पाश्चात्य लोगों और वामपंथियों ने धर्मग्रंथों को लेकर लोगों में भ्रांतियां भी फैलाईं। इसीलिए मनुवाद या ब्राह्मणवाद का हल्ला ज्यादा मचा।
मनुस्मृति या भारतीय धर्मग्रंथों को मौलिक रूप में और उसके सही भाव को समझकर पढ़ना चाहिए। विद्वानों को भी सही और मौलिक बातों को सामने लाना चाहिए। तभी लोगों की धारणा बदलेगी। दाराशिकोह उपनिषद पढ़कर भारतीय धर्मग्रंथों का भक्त बन गया था। इतिहास में उसका नाम उदार बादशाह के नाम से दर्ज है। फ्रेंच विद्वान जैकालियट ने अपनी पुस्तक 'बाइबिल इन इंडिया' में भारतीय ज्ञान विज्ञान की खुलकर प्रशंसा की है।
* पंडित, पुजारी बनने के ब्राह्मण होना जरूरी है : पंडित
और पुजारी तो ब्राह्मण ही बनेगा, लेकिन उसका जन्मगत ब्राह्मण होना जरूरी नहीं है। यहां ब्राह्मण से मतलब श्रेष्ठ व्यक्ति से न कि जातिगत । आज भी सेना में धर्मगुरु पद के लिए जातिगत रूप से ब्राह्मण होना जरूरी नहीं है बल्कि योग्य होना आवश्यक है। ऋषि दयानंद की संस्था आर्यसमाज में हजारों विद्वान हैं जो जन्म से ब्राह्मण नहीं हैं। इनमें सैकड़ों पूरोहित जन्म से दलित वर्ग से आते हैं।
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम।
क्षत्रियाज्जतमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च। (10/65)
महर्षि मनु कहते हैं कि कर्म के अनुसार ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो जाता है और शूद्र ब्राह्मणत्व को। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो जाया करती हैं। विद्या और योग्यता के अनुसार सभी वर्णों की संतानें अन्य वर्ण में जा सकती हैं।