यदि सतपुरुष को देखना चाहो तो धरती पर उनके भेजे हुए वक़्त के सन्त में देख लो

यदि सतपुरुष को देखना चाहो तो धरती पर उनके भेजे हुए वक़्त के सन्त में देख लो
यदि सतपुरुष को देखना चाहो तो धरती पर उनके भेजे हुए वक़्त के सन्त में देख लो

पहले की पूजा उपासना बड़ी कठिन थी, कलयुग में सन्तों ने नाम का सरल रास्ता निकाला

कलयुग योग न यज्ञ न ज्ञाना, एक आधार नाम गुण गाना

उज्जैन (मध्य प्रदेश)। जीवात्माओं के निज घर सतलोक जयगुरुदेव धाम से सतपुरुष द्वारा धरती पर मनुष्य चोले में भेजे गए उन्ही के तदरूप, इस कलयुग में जीवों को दुःख तकलीफ से बचाने, पिछले युगों की कठोर पूजा पाठ की बजाय प्रभु प्राप्ति का अति सरल नाम की कमाई का उपाय (नामदान) बताने वाले वर्तमान के सन्त सतगुरु दुःखहर्ता त्रिकालदर्शी परम दयालु उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त जी महाराज ने तपस्वी भंडारा कार्यक्रम में 27 मई 2022 प्रातः काल को उज्जैन आश्रम में दिए व अधिकृत यूट्यूब चैनल जयगुरुदेवयूकेएम पर लाइव प्रसारित संदेश में बताया कि जिनको आत्म साक्षात्कार हो जाता है, आत्मदर्शी कहलाते हैं। स्वर्ग बैकुंठ तक पहुंच वाले देवर्षि कहलाते हैं जैसे नारद मनुष्य शरीर में थे लेकिन अपनी दिव्य दृष्टि ज्ञान चक्षु के सहारे विष्णु व अन्य देवताओं से मिलकर चले आते थे। यहां का संदेशा वहां और वहां का यहां पहुंचा देते थे। जब कोई आदेश देना होता था, माध्यम बनाना पड़ता है, इनके द्वारा पहुंचाते थे क्योंकि विष्णु अगर आपके सामने आ करके खड़े हो जाएं तो पहचान नहीं सकते हो लेकिन मनुष्य शरीर में जिसको भी गुरु माने हो वह अगर यह कह दे कि विष्णु हैं तो आप मान लोगे। इसलिए जरूरत पड़ती है। मनुष्य शरीर वाले को ही मान्यता देते हैं कि इनकी बात को लोग मानेंगे। उनके द्वारा उनका लाभ, तकलीफों में फायदा, समस्याओं का निदान कराते हैं इसलिए मनुष्य शरीर में भेजते हैं, पावर लेकर आते हैं।

अलग-अलग युगों की अलग-अलग पूजा उपासना रही

देवर्षि के आगे योगी योगेश्वर सन्त फिर परम संत हुआ करते हैं। पहले के समय में पूजा उपासना बड़ी कठिन थी। सतयुग में तो इसकी जरूरत ही नहीं थी लेकिन त्रेता द्वापर में जरूरत, और जरूरत पड़ी। पूजा उपासना अलग-अलग युगों की अलग-अलग रही। त्रेता में लोग यज्ञ, साधना करते थे। द्वापर में मूर्ति पूजा, यज्ञ और हवन पर जोर था। अब कलयुग में वो पूजा उपासना हो नहीं सकती है। कलयुग में आये सन्तों ने नाम का आधार बनाया, सरल रास्ता निकाला।

कलयुग योग न यज्ञ न ज्ञाना। एक आधार नाम गुण गाना।।

सन्तों की जरूरत पड़ी कलयुग में। इनका दर्जा ऊंचा इसलिए बताया गया कि ऊंचे स्थान से यहां भेजे गए हैं। जो भी भेजता है वह खुद नहीं आता। विष्णु लोक, शिव, निरंजन ब्रह्म आदि लोक से जो आएंगे वह भेजे हुए होते हैं। वहां जिनको पावर गद्दी मिल गई है वह अपनी गद्दी नहीं छोड़ते हैं। अपनी शक्तियों को भेजते हैं लेकिन वो जो शक्तियां होती हैं, उन्हीं जैसी होती हैं इसीलिए कहा -

सतपुरुष की आरसी, संतन की है देह।
लखना चाहो अलख को, इन्हीं में लख लेह।।

(वो प्रभु) अलख है। उसको सतपुरुष को अगर लखना देखना चाहो, उनकी ताकत का इजहार करना चाहो तो भेजे गए सन्तों में देखो। वो भेजते तो उनके जैसे ही हो जाएं लेकिन उनके आदेश का पालन करते हैं। बगैर उनके आदेश के कोई भी निर्णय नहीं लेते हैं। शरीर भी छोड़ना हो तो आदेश लेते हैं।

गुरु महाराज पूरे थे, सतपुरुष के तदरूप थे लेकिन अपने गुरु का सहारा लेते थे

गुरु महाराज पूरे थे, कोई कमी नहीं थी। बिल्कुल सतपुरुष के तदरूप थे, पूरी ताकत उनमें थी लेकिन अपने गुरु को आगे रखते थे क्योंकि मर्यादा का पालन करना जरूरी होता है। गुरु का दर्जा हमेशा बड़ा रहता है। शिष्य चाहे गुरु जैसा, समकक्ष हो जाए लेकिन उनका सम्मान करता है।

गुरु का स्थान सर्वोपरि है

वह शक्ति देते हैं। उससे काम करते हैं। लेकिन जब कोई निर्णय लेना होता हैं तब उनसे पूछते हैं। स्थिति के अनुसार वो खुद आदेश कर देते हैं। जैसे शरीर जर्जर हो गया तुम्हारा, अब तुम खाली कर दो, चले आओ। अपनी इच्छा से भी जा सकते हैं, ऐसी बात नहीं है, लेकिन आदेश होता है और लेते भी हैं तब शरीर छोड़ते, कोई काम करते हैं। कहने का मतलब यह है कि गुरु का स्थान सर्वोपरि है।