भारत की हर राजनीतिक पार्टी में यह नियम होना चाहिए कि पार्टी अपने उम्मीदवारों की घोषणा कार्यकर्ताओं के हिसाब से करे, इससे मेहनती कार्यकर्ताओं को मौका मिलेगा और दल-बदलू नेताओं को पार्टी में मौके मिलना बंद हो जायेंगे।
There should be a rule in every politica




NBL, 09/09/2023, Lokeshwer Prasad Verma Raipur CG: There should be a rule in every political party of India that the party should announce its candidates according to the workers, this will give opportunity to the hardworking workers and defection leaders will stop getting opportunities in the party. पढ़े विस्तार से....
दलबदलू नेता बहुत कम भाग्यशाली होते हैं कि चुनाव जीत पाते हैं और ऐसे नेता ज्यादातर हार ही जाते हैं, दलबदलू नेता जिस भी क्षेत्र में होता है, उस क्षेत्र के लोग उसे अवसरवादी नेता मानते हैं, इसलिए लोग ऐसे दलबदलू नेताओं को पसंद नहीं करते ऐसे अवसरवादी दलबदलू नेताओं से जनता का मोहभंग हो जाता है।
दलबदलू नेता पाला बदलने के लिए भले ही विचारधारा की आड़ लेते हों, लेकिन असल में उनकी कोई विचारधारा ही नहीं होती,दलबदलू नेता यह कभी नहीं बताते कि वे जिन खामियों का उल्लेख करते हुए दल बदलते हैं उनका आभास उन्हें चुनावों की घोषणा होने के बाद ही क्यों होता है? साथ ही वह जिस दल को छोड़ते हैं और जिससे जुड़ते हैं उन दोनों की सिरदर्दी बढ़ाते हैं।
निजी स्वार्थ की पूर्ति का प्रयोजन यह एक तथ्य है कि दलबदल निजी स्वार्थ के लिए किया जाता है। कुछ को टिकट न मिलने का डर होता है तो कुछ को अपनी यह मांग पूरी होती नहीं दिखती कि उनके साथ-साथ उनके सगे संबंधी को भी टिकट मिले। कुछ अपने क्षेत्र की जनता की नाराजगी भांपकर अन्य क्षेत्र से चुनाव लडऩे की फिराक में नए दल की ओर रुख करते हैं। दलबदल करने वाले नेता भले ही विचारधारा की आड़ लेते हों, लेकिन सच यह है कि उनकी कोई विचारधारा नहीं होती। वे जिस दल में जाते हैं, उसकी ही विचारधारा का गुणगान करने लगते हैं, जबकि कुछ समय पहले तक उसकी निंदा-भत्र्सना कर रहे होते हैं। विडंबना यह है कि कई बार मतदाता भी उनके बहकावे में आ जाते हैं।
दलबदलू नेता जिस दल को छोड़ते हैं, केवल उसे ही असहज नहीं करते, बल्कि वे जिस दल में जाते हैं वहां भी समस्या पैदा करते हैं, क्योंकि उसके चलते उसके क्षेत्र से चुनाव लडऩे की तैयारी कर रहे नेता को झटका लगता है। कई बार वह नाराजगी में विद्रोह कर देता है या फिर किसी अन्य दल में शामिल हो जाता है। जिस तरह चुनाव की घोषणा होने के बाद दलबदल होता है, उसी तरह प्रत्याशियों की घोषणा होने के बाद भी। जिस दल के नेता का टिकट कटता है, वह दूसरे दल जाकर प्रत्याशी बनने की कोशिश करता है। शायद ही कोई दल हो, जिसे टिकट के दावेदारों के चलते खींचतान का सामना न करना पड़ता हो, लेकिन वे कोई सबक सीखने को तैयार नहीं।
चाहे बीजेपी हो, कांग्रेस हो या फिर प्रदेश में सत्तासीन कोई भी पार्टी हो, भले ही वह पार्टी जनहित में कितना भी अच्छा काम कर ले, लेकिन आने वाले चुनाव में अगर किसी दलबदलू नेता को अपनी पार्टी में शामिल कर अपनी पार्टी का उम्मीदवार बना लेती है.किसी भी क्षेत्र में चुनाव जीतेंगे करके यदि उसे मैदान में उतारा जाता है तो उस दलबदलू नेता की हार निश्चित है।
क्योंकि वह एक अवसरवादी नेता है, उस नेता की ताकत और उसकी नीति लोगों को पसंद नहीं आती है। क्योंकि किसी भी दल में किसी राजनीतिक दल या उसकी रीति-नीति के प्रति स्थायी रूप से समर्पित होने की भावना उसके मन में नहीं होती और दल-बदलू नेता उस दल के नियमों की सच्ची समझ के साथ जिस दल में शामिल होता है, उसी का गुणगान करता है। लेकिन उनका गाना उस क्षेत्र के लोगों को पसंद नहीं आता, क्योंकि दलबदलू नेता का एक पार्टी से उस पार्टी में जाना और जिस पार्टी में दलबदलू नेता जाता है, उसका गुणगान करना उस क्षेत्र के लोगों को ताकत की गारंटी नहीं देता, क्योंकि वह एक दलबदलू नेता हैं।
आम तौर पर दलबदल करने वाले नेताओं के पास एक जैसे घिसे-पिटे तर्क होते हैं। कोई कहता है कि उनकी जाति-बिरादरी के लोगों की उपेक्षा हो रही थी तो कोई अपने क्षेत्र की अनदेखी का आरोप लगाता है। दलबदलू नेता यह कभी नहीं बताते कि वे जिन खामियों का उल्लेख करते हुए दल बदलते हैं, उनका आभास उन्हें चुनावों की घोषणा होने के बाद ही क्यों होता है? वे यह भी नहीं बताते कि क्या उन्होंने कभी उन मसलों को पार्टी के अंदर उठाया, जिनकी आड़ लेकर दलबदल किया।
सुधारों की पहल करें राजनीतिक दल: राजनीतिक दल चाहे जो दावे करें, प्रत्याशियों के चयन की उनकी प्रक्रिया पारदर्शी नहीं। कुछ दल यह अवश्य कहते हैं कि वे चुनाव के पहले सर्वेक्षण कराकर यह पता करते हैं कि कहां कौन नेता चुनाव जीत सकता है, लेकिन इसमें संदेह है कि इस तरह के सर्वेक्षणों से उन्हें सही तस्वीर हासिल हो पाती है। यह जानना भी कठिन है कि इस तरह के सर्वेक्षणों में क्षेत्र विशेष के मतदाताओं की कोई राय ली जाती है या नहीं? कई बार यह देखने में आता है कि प्रत्याशी चयन के मामले में पार्टी कार्यकर्ताओं की भी कोई भूमिका नहीं होती। कायदे से तो यह होना चाहिए कि कौन नेता प्रत्याशी बने, इसमें क्षेत्र विशेष की जनता की भी कोई न कोई भूमिका हो। इससे ही लोकतंत्र को मजबूती मिलेगी।
आखिर कुछ अन्य देशों की तरह भारत में यह क्यों नहीं हो सकता कि पार्टी कार्यकर्ताओं को प्रत्याशी चयन का अधिकार दिया जाए? यदि प्रत्याशी चयन में अमेरिका की प्राइमरी प्रक्रिया को अपना लिया जाए तो भारतीय लोकतंत्र का भला हो सकता है। कार्यकर्ताओं की भागीदारी से प्रत्याशी का चयन करने से न केवल गुटबाजी, विद्रोह और भितरघात पर लगाम लगेगी, बल्कि योग्य प्रत्याशी भी सामने आएंगे। चूंकि प्रत्याशी चयन में मनमानी होती है इसलिए टिकट के जो दावेदार उम्मीदवार नहीं बन पाते, वे अपनी ही पार्टी की नींव खोदने में लग जाते हैं।
यह सही समय है कि चुनाव आयोग को लोकतंत्र को सशक्त करने के लिए कुछ और अधिकार दिए जाएं: फिलहाल चुनाव आयोग के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं कि वह चुनाव के समय दल बदलने वालों पर कोई कार्रवाई कर सके। उसके पास आपराधिक छवि वालों को चुनाव लडऩे से रोकने का भी कोई अधिकार नहीं। यह ध्यान रहे कि दलबदल सरीखी गंभीर समस्या आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों का चुनाव लडऩा भी है। इसी तरह एक अन्य समस्या पैसे के बल पर चुनाव जीतने की प्रवृत्ति भी है।
ये खामियां भारतीय लोकतंत्र के लिए एक धब्बा हैं। समय-समय पर मीडिया और सामाजिक संगठन चुनाव सुधारों की ओर राजनीतिक दलों का ध्यान आकर्षित तो करते हैं, लेकिन वे उस पर गौर नहीं करते। यदि राजनीतिक दलों का यही रवैया रहा तो न केवल भारतीय लोकतंत्र की गरिमा गिरेगी, बल्कि राजनीति उन नेताओं के हाथों में कैद हो जाएगी, जिन्होंने जनसेवा की आड़ में सियासत को एक पेशा बना लिया है और जो अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं।